Thursday 7 January 2016

साइंस धर्म
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बलदेव  राज दावर

-:  नयी दुनिया के नए खुदा, तेरी जय हो :-
(An Ode to Man)

तुम जिन्न या भूत नहीं।
कहीं से आये नहीं। किसी ने भेजा नहीं।
किसी ने सोच-समझ कर तुम्हें गढा नहीं।
न तुम आकाश से टपके हो, न शून्य से प्रकटे हो।
तुम अपने माता-पिता के शरीर से उगे हो - अनायास।

(2) उन्हीं से तुम्हें शरीर मिला,
शरीर का विधान मिला, प्राण मिले,
हाथ-पैर, सिर-धड़ और सीना मिले।
सीने में दिल मिला, दिल में धड़कन मिली।
सिर में सोच मिली, और मन में ‘मैं’ मिली -
और ये सब सामान मिला - अपने माँ-बाप से।
… और तुम्हारे मां-बाप को अपने-अपने मां-बाप से।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी और पुश्त-दर-पुश्त,
धड़कनों और साँसों का सिलसिला जारी है।
तुम्हारे मन में बैठी ‘मैं’ भी अरबों साल बूढ़ी  है -
वह यादों का पिटारा है; सोचों की गठड़ी है।

(3) पूछो, प्राणियों के पहले-पहले पुरखे कहाँ से आये थे?
शुरू-शुरू में शुरुआत कैसे हुई?
बीसवीं सदी की साइंस को कुछ संकेत मिले हैं:
आज से तीन-चार अरब साल पहले, हमारी पृथ्वी पर,
चुटकी-भर माटी से, एक बूँद पानी से, एक फूँक हवा से
और एक किरण धूप से, अनायास, कुछ अणुओं का गठन हुआ
जो कुछ मिंटो में एक से दो हो जाते थे - हू-बहू अपने जैसे।
होते-होते उन अणुओं में एक चाबी-सी भर गयी,
और देखते-देखते वे अणु जीवाणु हो गए।

(4) ये जीवाणु पृथ्वी के सभी प्राणियों के पहले-पहले पुरखे थे।  
पेड़-पौधे क्या, कीट-पतंग क्या और पशु-पक्षी क्या;
आज पृथ्वी पर कोई प्राणी नहीं जो उन जीवाणुओं का वंशज न हो।
हम सब उन सांझे पुरखों की संतानें हैं।  

(5) तुम्हारे शुरुआती पुरखों के जो फासिल आज मिले हैं
उनसे पता चलता है कि वे प्राणी
तब बहुत छोटे, बहुत सरल और बहुत सूक्ष्म थे।
छोटे इतने कि बिना माइक्रोस्कोप के दिखाई न दें।   
और सरल इतने कि उनके न हाथ थे,
न पैर, न सिर, न मुंह,
मानो, उनका केवल पेट ही पेट था।

(6) लेकिन वे शुरुआती पुरखे जीववृक्ष का, मानो, तना थे।
उस तने में से अनगिनत शाखाऐं,
और शाखाओं में से उप-शाखाएं, फूटती रही ।
जहाँ सींघ समाये वहां बस्ती रहीं
और जहाँ-जहाँ बस्ती रहीं
वहां-वहां के जल-वायू के अनुसार ढलती रहीं।   
करते-करते बानर वंश की एक शाखा,
अभी कुछ ही लाख पहले, अफ्रीका में,
मनुष्य रूप में विकसित हुई।

(7)  मनुष्य रूप में तुम बहुत कमज़ोर और लाचार थे,
अध्-पक्के और अध्-कच्चे तुम्हारे बच्चे,
हिंसक पशुओं का बहुत आसान शिकार थे।
तुम्हारी शाखा समूल नष्ट होने के कगार पर खड़ी थी।  
केवल वही परिवार बचे जिन्हों  ने
लकड़ी-पत्थर और हड्डियों के औज़ार धारण कर लिये।

(8) तुम्हारे इन औज़ारों से तुम्हारी रक्षा हुई -
कई हिंसक पशु दुम दबा कर भाग खड़े हुए,
कइयों ने दुम हिला कर तुम्हारी दासता स्वीकार कर ली,
और, आज तुम पशु जगत के खुदा हो गए हो। तुम्हें सलाम।
हे अस्त्रधारी, हे शस्त्रधारी, हे धनुर्धारी,
और हे यंत्रों-मन्त्रों और युक्तियों से युक्त बंदूकधारी,
तुम्हें प्रणाम।  
आज तुम्हें पशु या बानर कहते संकोच होता है।

(9) ...लेकिन, तुम्हारा इतिहास पशुओं के इतिहास से अलग नहीं।
केवल दस साल पहले तुम्हारे पास मोबाइल नहीं था।
केवल सौ साल पहले रेडियो-फ़ोन-टीवी नहीं था,
हज़ार साल पहले कहीं-कोई पक्की सड़क नहीं थी,
दस हज़ार साल पहले तुम्हारे सिर पर छत नहीं थी,
न बदन पर कपडे थे, न पैरों में जूते,
एक लाख साल पहले तक तुम अफ्रीका से बाहर नहीं आये थे,
एक करोड़ साल पहले पेड़ों पर तुम्हारा बसेरा था,
दस करोड़ साल पहले तुम चार पैरों पर चलने वाले चूहे थे।  
यह शर्म की नहीं, वास्तव में गर्व की बात है।  

(10) ...और मनुष्य शिशु के रूप में तुम आज भी
बहुत कमज़ोर और बहुत लाचार पैदा होते हो।  
महीनो-साल लगते हैं तुम्हें खड़ा होने में।
लेकिन तुम अकेले नहीं, अलग या बे-सहारा नहीं।
माँ की गोद से, बाप की छत्र-छाया से, बहन-भाइयों से,
संगी-साथियों से, घर-आंगन से, गांव-नगर से,
यानी कि मानव समाज से, शुरू से, जुड़े हुए हो।

(11)  समाज से तुम्हें शब्द मिले, शब्दों के अर्थ मिले,
हुनर मिले, कौशल मिले, सूझ-बूझ मिली,
कलाएं मिलीं, कथाएं मिलीं, मान्यताएं मिलीं,
गीत मिले, मीत मिले, लाज-शर्म मिली,
समाज से ही अच्छे-बुरे की तमीज मिली,
अगर एक शब्द में कहें तो, मानवता मिली, समाज से।

(12) आज तुम पैदल नहीं, निहत्थे नहीं, नंगे नहीं।  
लाखों साल पहले वाले गूंगे, बहरे और अंधे नहीं।
आज तुम्हारे हाथों में अस्त्र हैं, शस्त्र हैं,
औज़ार हैं, हथियार हैं - अद्भुत टेक्नोलॉजी है।  
तुम्हारे पैरों में पहिये हैं, आँखों पर ऐनक है,
कानों पर मोबाइल है, जुबान पर माइक है
और उँगलियों में रिमोट है।  
इशारों ही इशारों में तुम इस कठ-पुतली दुनिया को
मन चाहे नाच नचा रहे हो।

(13) ...और, तुम्हारी साइंस की रौशनी में अंधेरे छट रहे हैं।
हर तरफ उजाला फैल गया है।
इतना प्रकाश है कि कुछ चूहे उसकी चकाचौंध से डर कर
अतीत की गहरी बिलों में घुस गए हैं, धस गए हैं;
और वहाँ बैठे-बैठे ‘आग-आग’ चिल्ला रहे हैं।  

(14) इस नई दुनिया में शुभ-अशुभ और अच्छे-बुरे  
के भेद धुन्धले होते जा रहे हैं।
और बड़ी से बड़ी मान्यताएं, मिथक बनती जा रही हैं।  
जांत-पांत के भेद मिट रहे हैं।
छू -मन्त्रों और जादू-टोनों से भरोसे उठ रहे हैं।
अगले तीस-चालीस सालों में तुम भूल जाओगे
कि तुम हिन्दू थे, मुस्लमान थे, बौद्ध थे, या ईसाई।  
अगले चालीस-पचास सालों में तुम अपने को
हिंदी, चीनी, पाकी या अमरीकी भी नहीं बताओगे।  
तुम पृथ्वी पुत्र हो, पृथ्वी के नागरिक हो जाओगे।  

(15) तुम्हारी जन-संख्या बढ़ रही है, इसमें संदेह नहीं,
लेकिन तुम्हारी साइंस और टेक्नोलोजी की बदौलत
अन्न-जल, सुख-सुविधाओं और सेवाओं का उत्पादन
और भी तेज़ी से बढ़ रहा है।
आबादी का बढ़ना स्लो हो गया है,
अगले चालीस-पचास सालों में वह रुक जायेगा,
लेकिन उत्पादन का बढ़ना नहीं रुकेगा।
उत्पादन इतना बढ़ जायेगा कि तुम माला-माल हो जाओगे।
किसी आवश्यक वस्तु की कमी नहीं रहेगी।
और सब झग़ड़े-फ़साद, छीना-झपटी ख़त्म हो जायेगी,
आज की माई-बाप सरकारें कल जन-सेवाएं हो जाएंगी।
पूरी मानव जाति आपस में घुल-मिल कर एक जुट हो जायेगी।
जो आज खिचड़ी है वह कल खीर हो जाएगी।  

(16) लेकिन, हे मानव,ख़बरदार!
सूरज के आंगन में एक ढलान पर लुढ़खती तुम्हारी पृथ्वी,
और उस पृथ्वी की गोद में बसे अति सूक्ष्म प्राणीजगत पर,
आज कई खतरे मंडरा रहे हैं।
प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। मौसम बे-मौसम हो रहे हैं।
प्रदूषण के कारण तापमान चढ़ रहा है।
नदियां सूखती जा रही हैं।
पीने का पानी दुर्लभ और दुर्गम होता जा रहा है।
इन खतरों से पृथ्वी की रक्षा करना
आज तुम्हारी जिम्मेदारी हो गयी है - केवल तुम्हारी।  

(17) हे महा मानव, तुमने अनगिनत संकटों को झेला है।
तुम्हारे पास अरबों पीढ़ियों का अनुभव है।
तुममें जीने की दृढ़ इच्छा है।
तुम संवेदनशील हो, विचारशील हो और दूरदर्शी हो।
तुम्हारे पास अद्भुत साइंस है, अतिकुशल टेक्नोलॉजी है।
पूरे पशुजगत में केवल तुम्ही एक पशु हो जो,
पेड़ों की तरह, अपना भोजन स्वयं उगाने लगे हो।
अक्सर वही खाते हो जो खुद उगाते हो या खुद पालते हो।
जंगली पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों को नष्ट करने से कतराते हो।  
तुम्हें सलाम, तुम्हें शत शत प्रणाम।

(18) आज इस दुनिया की बाग-डोर तुम्हारे हाथों में है।
तुम इस दुनिया के नए खुदा हो।
आज तक तुम डरते रहे हो, बच-बच कर जीते रहे हो,
हज़ारों में से एक-दो चुने जाते रहे हो,
अब जीयो, जी भर कर जीयो, जीने का भरपूर आनंद लो,
अपनी सन्तानों का पालन-पोषण करते हुए
अपने को अमर कर लो। अमिट कर लो।
और अन्य प्राणियों को भी जीवन दान दो;
पृथ्वी के वातावरण की रक्षा करो;
पृथ्वी के प्राणीजगत की रक्षा करो;
पूरी पृथ्वी को अपने आँचल की ओट में ले लो, भगवन।
तुम्हारी जय हो।
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About the Author

Baldev Raj Dawar is a Hindi writer. He writes about the new WORLD VIEW that is emerging from the womb of modern science. He is a columnist, TV panelist and author of many books, including Prithvi Mera Desh Science Mera Dharm. He was born in 1931, West Punjab. He retired from Indian Foreign Service (B) in 1989. His magnum opus, Baldev Geeta/V

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