Thursday 25 January 2018

In the Padmaavat case, the State has allowed Karni Sena to make a mockery of existing institutions; it got blackmailed — or saw it politically expedient — to force its postponement; it then allowed the Karni Sena to define the terms of the debate — does the film respect or insult Rajputs — rather than categorically assert that once it was certified and had gone through due process, the content was irrelevant; then various state governments — with the Centre turning a blind eye — allowed goons of the Sena to rampage across parts of India contravening the rights of all other citizens, including children; it has done little to act against this group despite criminality and it has done little to reassure other citizens that their right to either watch the movie or even to walk the streets of say a Gurugram or Jaipur will be protected in the face of the mob.
This is a remarkable story of abdication of political and administrative responsibility.

Saturday 6 January 2018

नरेंद्र मोदी के भक्तों में ज्यादातर वे हैं जो विकास के नाम पर देश में एक बार फिर वर्णव्यवस्था वाला शासन थोपना चाहते हैं जिस में ऊंचनीच का फैसला शास्त्रीय ग्रंथों के अनुसार जन्म के समय ही हो जाए और सुखदुख की चाबी पोथी बगल में दबाए किसी तिलकधारी के हाथों में हो. ऐसा हिंदू राज इस देश में न कभी था और न संभव है. रामायण, महाभारत काल में भी केवल जनता ही नहीं राजा भी सुखी न थे क्योंकि ये दोनों महाकाव्य 2 राजघरानों पर आई आफतों का ही वर्णन हैं.
इन दोनों ग्रंथों में वर्णित हिंदू आदर्श पात्र, जिन में से कुछ के आज मंदिर बना उन को पूजा जाता है, अपने पूरे जीवन अस्तित्व के लिए संघर्ष करते रहे और वे अपने राज, संपत्ति, सम्मान की रक्षा भलीभांति न कर पाए, आम जनता की रक्षा भला उन्होंने क्या की होगी, उस की बात छोडि़ए.
यह विडंबना ही है कि जब ये महाकाव्य तब की काल्पनिक स्थिति का खासा सूक्ष्म वर्णन करते हैं और उस युग की जनता की त्रासदी का थोड़ा सा ही वर्णन करते हैं, राजसी पात्रों की तो बात छोडि़ए जो बहुत कर्णप्रिय नहीं हैं, तो इन पर आज विकास का मौडल कैसे बनाया जा सकता है?

Thursday 4 January 2018

सामाजिक भेदभाव तथा पूर्वग्रह का मूल आधार क्या है ?
बैरभाव के बीज बोए कहां जाते हैं? ये न स्कूलों में बोए जाते हैं, न कालेजों में और न दफ्तरों में. इन सब जगह लोग हर तरह के लोगों के साथ काम करने को तैयार रहते हैं.
असल में भेदभाव मंदिरों, मसजिदों, चर्चों, गुरुद्वारों में सिखाया जाता है. वहां एक ही धर्म के लोग जाते हैं और सिद्ध करते हैं कि हम दूसरों से अलग हैं. धर्म के रीतिरिवाज ही एकदूसरे को अलग करते हैं. धर्म के नाम पर छुट्टियों में एक वर्ग घर पर बैठता है और दूसरा बढ़चढ़ कर पूजापाठ के लिए धर्मस्थल को जाता है. पहनावा भी धर्म तय करता है, जो अलगाव दर्शाता है. कुछ कलेवा बांधे टीका लगाए घूमते हैं तो कुछ टोपी पहनते हैं तो कोई पगड़ी बांधता है. संविधान की धज्जियां तो ये भेदभाव उड़ाते हैं.
सभी धर्म एक दूसरे के प्रति अंतर्विरोध ,घृणा तथा पूर्वग्रह पर टिके हैं . मेरा धर्म तुम्हारे धर्म से श्रेष्टतम [ My religion is holier than thou] थ्योरी प्रेरित प्रतिस्पर्धा की दौड़ में विभिन्न धर्मों के ठेकेदार नैतिक और अनैतिक के अंतर को भूल जाते हैं .समय अन्तराल से धर्म शोषणकारी व्यवस्था का सशक्त हथियार रहा है और आज २१वी शताब्दी में भी यह क्रम जारी है .इतिहास गवाह है कि आदिकाल से आजतक जितना नरसंहार अकेले धर्मिक पूर्वग्रह के कारण घटा है उतना और किसी एक कारण से नहीं घटा है .आज भी पूरे विश्व में सर्व धार्मिक जनून के कारण खून का दरिया उछल उछल कर बह रहा है. धर्म तोड़ता है जोड़ता नहीं. तभी आज समधर्मी भी एक दूसरे का गला काटते नज़र आ रहे हैं .विभिन्न धर्म संकीर्णता अन्धविश्वास कट्टरता उन्माद घृणा तथा अकर्मण्यता के प्रेरणास्त्रोत हैं तथा मानवतावाद, तर्कशीलता एवं वैज्ञानिक सोच को नकारते हैं. सर्व धर्म सद्भावना केवल खोखला आधारहीन प्रपंच है .