Saturday 24 February 2018

दान दें ज्यों ज्यों रूप बडे त्यों त्यों  !
पाखंडी पुरोहितों और पंडितों के वर्ग हितों के लिए बनाया गया मायाजाल  !
* जो स्त्री एक साल तक 

Wednesday 21 February 2018

तुम तो गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गये नीरव ।यहाँ गूगल कर करके परेशान हैं ,तुम्हारा पत्र मिल गया है,मेल भी पहुंच गया है,पर तुम कहां छुपे हो छलिया ? यहां तुम्हारे चचा ताऊ नानी नाना सब परेशान हैं ।तुम्हारे सारे ब्रांड एम्बेसडरों का रो रोकर बुरा हाल है,सारे बैंक के ऊपर नीचे के  लोगों का धंधा बंद है ,यहां तक कि एल ओ यू साइन करने वाले, सिफ़ारिश करने वाले तुम्हें याद कर रहे हैं।हीरे-जवाहरात के बिना उनकी बहन बेटियों और बीबियों के गले सूने-सूने हैं ।सच तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा,तुम जैसे न जाने कितने 2 जी वाले खुल्ले घूम रहे हैं,तुम्हारा कोई क्या उखाड़ लेगा।तुम्हैं तो पता ही है एक डेढ़ लाख करोड के कर्जवाले भाई लोग तक देश में मजे कर रहे है तो तुम क्या चीज हो ।
व्यर्थ चिंता न करो तुम जैसे महानुभाव तो देश की आत्मा हो और आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं,न आग जला सकती है। तुम जैसे 7-8 लाख करोड एनपीए वाले भाई लोग के आसरे तो देश की अर्थव्यवस्था सांस ले रही है।तुम पर कार्रवाई कौन करेगा?यदि तुम जैसे लोग के विरूद्ध कार्यवाही हुई तो अर्थव्यवस्था धड़ाम हो जायेगी।आ जाओ, फिर तुम्हारे सरनाम का तो वैसे ही डंका बज रहा है देश- विदेश में।लौट आओ, लौट आओ डियर ! 
            देखो कुछ राज्यों के चुनाव सिर पर हैं ,चंदे की रसीदें छप गई हैं,नीचे ऊपर से जो भी बने मदद करो ! तुम हमारी करो हम तुम्हारा ध्यान रखेंगे।अभी पार्टी के पास 500_600 करोड है ,लेकिन जानते ही हो चुनाव में कितना खर्च होता है ,मीडिया वालों को भी सैट करना होता है। मतदाता को मोबाईल लैपटॉप वगैरह -वगैरह देने होते हैं और रैलियों में भीड़ की भी जरुरत होती हैं।अब तो दिहाड़ी भी बढ गई है ,ससुरे मुंह फाड़ने लगे हैं । बड़ी देर भई नंदलाला तेरी राह तके बृजबाला। आ जा रे नीरव !
न्याय प्रणाली व्यवहार और चिंतन में  !
यह दुर्भाग्य है की हमारी न्याय प्रणाली न तो जनता की आकांक्षाओं पर न प्रगति के लिए सहायक सिद्ध हो पा रही है । आधार कार्ड जैसे मुद्दे पर अपनी पोंगापंथी वाले निर्णय या अमीरो को राहत पहुंचाने वाली सोच, तीसो साल घिसटने वाले मुकदमे या अपनी अहंकारी छवि कोई भी जनता को प्रभावित नहीं कर पा रहें हैं । ऐसा लगता है की सारी न्याय व्यवस्था सिर्फ रसूख वाले लोगो को राहत देने में जुटी हुई है । गरीब बिचारा सालो साल बिना पेशी के जेल में बंद रह जाता है तो नेता अभिनेता और करोडों का घोटाला करने वाले और यहाँ तक की मनुष्यों को अपनी लम्बी लम्बी गाडियों से रौंदने वालो को तुरंत अग्रिम जमानत मिल जाती है । किसी अपराधी के लिए तो रात के 12 बजे के बाद भी उच्चतम न्यायालय के दरवाज़े खुल जाते है और कहा सैकड़ों निरपराध सालो जेल में सड़ते रहते है और अदालतों के पास उनके लिए वक़्त नहीं होता। संसार की सबसे मोटी संविधान की किताब होने के बाद भी न्याय मिलना जनता के लिए उतना ही दुर्लभ है। हमें बहुत ही संजीदगी के साथ सोचना होगा की क्या इस मौजूदा व्यवस्था का आमूल-चूल परिवर्तन ज़रूरी हो गया है ? क्या जजों की जनता के प्रति जवाबदेही जरूरी नहीं होनी चाहिए। लंबित मुक़दमों की बढ़ती हुई तादाद की जिम्मेदारी किसको लेना चाहिए ?