Tuesday 19 January 2016

व्यंग्य, 
एक व्यवहारिक जिज्ञासा ?
जब भी भक्तगण के बीच में बैठने का अवसर मिलता है, प्रायः सुनने को मिलता है "अजी भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं ".हम ठहरे नास्तिक परन्तु यदि इस परिभाषा के यथार्थ में परखें, तो मन मस्तिष्क में जिज्ञासा गूंज उठती है कि प्रातः स्मरणीय बहु चर्चित बहु प्रचारित भगवान जी का घर कहाँ है? देखिए न :-
‪#‎विष्णु‬ जी का क्षीर सागर में निवास है. 
‪#‎ब्रह्मा‬ जी कमल पर विराजमान हैं. 
‪#‎शंकर‬ जी कैलाश पर विराजमान है.
ऐसी परिभाषा के आधार पर कहा जा सकता है कि हमारे पावन देश में बिना घर के कोई भी नहीं है और न ही ऐसे घरों में अंधेर हो सकता है, न ही कोई गरीब है, न कोई गरीबी के रेखा से नीचे रहता है. जब भगवान जी न्यूनतम पहनावे में कैलाश पर्वत अथवा क्षीर सागर में रह सकते हैं, भला भक्तगण को कपड़ों के अभाव का गिला करना शोभा देता है क्या? जब भगवान जी प्रकृति की खुली नैसर्गिक छटा के भीतर रहते हों तो भला भक्तगण फुटपाथ पर रहते हुए छत वाले घर की अभिलाषा क्योंकर पालते हैं ???
‪#‎यथाभगवान‬
‪#‎तथाभक्तगण‬.

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