Tuesday 30 June 2015

Scams do happen but the way a government responds to it reveals its real strength, or lack of it. In terms of deaths, arrests and money involved, it may well be the state's biggest-ever scam. Newspapers allege 44 scam-related deaths, the government admits to 25. Bribes paid reportedly amount to Rs 2,000 crore. Some 2,000 people have been arrested — among them the Education Minister — and 500 more are wanted. The accused included Governor Ram Naresh Yadav, but the high court provided him immunity from action. The scam relates to bribes paid for appointments to state jobs and admissions to professional courses carried out between 2007 and 2013 by the MP Vyavsayik Pariksha Mandal (Vyapam) or the MP Professional Examination Board. 
The high court has appointed a special investigation team (SIT), which has pointed out that of those who died 32 were aged between 25 and 30. The deaths include both of the accused and witnesses and most have occurred under mysterious circumstances. Home Minister Babulal Gaur claims these were natural, while the Opposition, media and relatives of the deceased cry foul and demand a CBI inquiry. The accused also include RSS functionaries.  

Saturday 27 June 2015

एक दिवंगत भारतीय का अंतराष्ट्रीय अमरत्व, 
गुरु शिष्य संवाद !
गुरू : बच्चो बताओ 21जून 2015 का क्या महत्व है? 
मेधावी शिष्य : एक दिवंगत भारतीय,राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक, केशवराम बालीराम हेडगेवार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमरत्व प्राप्त हो गया.
गुरू : क्या फेंकते हो? उन की मृत्यु तो 75 वर्ष पहले 1940 में हुई थी. 
शिष्य : वही तो, उन के मृत्यु दिवस पर अंतराष्ट्रीय योग दिवस के आयोजन के साथ ही उन को अंतर्राष्ट्रीय अमरत्व प्राप्त हो गया. और हाँ, गुरु जी में किसी राष्ट्रीय नेता की भान्ति फेंकता नहीं हूँ. केवल तथ्य पर आधारित बात करता हूँ.
गुरु : हमें तुम पर गर्व है. ज्ञानवान भव, आयुष्मान भव.

Tuesday 23 June 2015

 आज हम विज्ञापन की चकाचैंध में इतने बह जाते हैं कि अपनी छोड़ अपने बच्चों की सेहत तक का हमें ख्याल नहीं रहता। पिछले दो दशक में देश की कितनी करोड़ माताओं ने बड़े उत्साह से अपने बच्चों को मैगी बनाकर खिलायी होगी। माताएं क्यों नौकरीपेशा नौजवान जो पराए शहर में बिन ब्याहे रहते हैं, अक्सर मैगी खाकर अपना रात्रि भोज पूरा कर लेते हैं। ऊपर से कोकाकोला या पेप्सीकोला जैसे हानिकारक पेय पीकर मस्त हो जाते हैं। हमें सोचना चाहिए कि भारत की गर्म जलवायु में जब घर का बना ताजा खाना सुबह से शाम तक में सड़ने लगता है, तो ये पैकेट बंद खाद्य कैसे सड़े बिना रह जाते हैं। जाहिर है कि इनमें ऐसे प्रिजरवेटिव और रसायन मिलाए जाते हैं, जो इन्हें हफ्तों और महीनों सड़ने नहीं देते। पर यही प्रिजरवेटिव और रसायन हमारी आंत में जाकर उसे जरूर सड़ा देते हैं, कैंसर जैसी बीमारियां पैदा कर देते हैं। पर इस जंक फूड को खाने से पहले हम एक बार भी नहीं सोचते कि हम क्या खा रहे हैं ? क्यों खा रहे हैं ? इसका हमारे स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर पड़ेगा ? देखा जाए तो शहरों के ज्यादातर लोग आज फास्ट फूड के नाम पर जहर खा रहे हैं और सोच रहे हैं कि हम आधुनिक हो गए। जबकि हमारे गांव में रहने वाले परिवार दकियानूसी हैं, क्योंकि वहां आज भी चूल्हे पर ताजा दाल, सब्जी और रोटी पकाकर खायी जाती है। अगर पेयजल के प्रदूषण की समस्या को दूर कर लिया जाए, तो हमारे गांव में रहने वाले भाई-बहिन स्वास्थ्य के मामले में हर शहरी हिंदुस्तानी से 10 गुना बेहतर मिलेंगे। इस चुनौती को कहीं भी परखा जा सकता है। फिर हम क्यों जान-बूझकर मूर्खता कर रहे हैं ?
 
मजे की बात यह है कि जिन देशों में फास्ट फूड के नाम पर जंक फूड पनपा था, वहां आज सभ्य समाज ने इसका पूरी तरह बहिष्कार कर दिया है। पहले जब हम यूरोप या अमेरिका के डिपार्टमेंटल स्टोरर्स में रसोई का सामान खरीदने जाते थे, तो हर चीज बंद डिब्बों में सजा-संवारकर बेची जाती थी। पर अब स्वास्थ्य की चिंता से उन देशों के लोगों ने खेतों से आयी ताजा सब्जी और अनाज खरीदना शुरू कर दिया है। ठीक वैसे ही जैसे भारत के हर शहर की एक सब्जी मंडी होती है, जहां ताजा सब्जियों के ढ़ेर लगे होते हैं। इन देशों के महंगे डिपार्टमेंटल स्टोरर्स में भी सब्जियों के ढ़ेर उसी तरह लगे दिखाई देते हैं। यानि काल का पहिया जहां से चला, वहीं पहुंच गया।

Monday 22 June 2015

JAUNDICED SAFFRON OUTLOOK;
Notwithstanding the Modi government's pretence and protestation that there was nothing political about the International Yoga Day celebrations, sections of the Sangh Parivar determinedly saw it as a Hindutva project. A needless and ugly controversy has been kicked up by right-wing cyber warriors over the non-presence of the Vice-President of India , Hamid Ansari, from the mega event on Sunday. An RSS senior functionary, now "on deputation" to the BJP, has heaved in with suggestive tweets about Mr. Ansari's non-participation. The implication is all too obvious, all too narrow-minded, and all too disquieting to be brushed off as a familiar social media triviality. 
So unhappy and unpalatable was the insinuation that the Vice-President Office did well to clarify that Hamid Ansari was not asked to the yoga celebrations, and as per the standing operative protocol, he could not participate in a public event unless invited to do so by the minister concerned. The RSS cyber warriors had also alleged-wrongly -- that the Rajya Sabha TV, a public- funded channel, had blacked out the Rajpath spectacle, starring Prime Minister Narendra Modi. It was left unsaid but did not need to be said that the Vice-President, in his ex-officio capacity as the Chairman of the Rajya Sabha, presides over the RSTV. This allegation, too, has been refuted.
It is obvious that the right-wing hotheads have recklessly and revealingly made the Vice-President's presence a wedge issue. A wedge-issue ploy aims, deliberately and provocatively, to kickstart a mischievous political game by raising a seemingly innocuous controversy. Those who have been fielded in this game are senior and influential voices and are often heard as representing the ruling establishment's private thinking.  As per the Constitution of India, the Vice-President is neither beholden nor accountable to the ruling party of the day.  It is constitutionally wrong and politically unwise to expect an incumbent to associate himself with every single project of the government.    

Sunday 21 June 2015

संख्या बढने पर क्यों आक्रामक हो जाते हैं मुस्लमान  ???
धर्मांधता किसी की भी हो, हिन्दू, सिख, मुसलमान या ईसाई, मानवता के लिए खतरा होती है। जिस-जिस धर्म को राजसत्ता के साथ जोड़ा, वही धर्म जनविरोधी, अत्याचारी और हिंसक बन गया। गत 2-3 दशकों से इस्लाम धर्म के मानने वालों की हिंसक गतिविधियां पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं। 2005 में समाजशास्त्री डा. पीटर हैमंड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक है ‘स्लेवरी, टैररिज्म एंड इस्लाम-द हिस्टोरिकल रूट्स एंड कंटेम्पररी  थ्रैट’। इसके साथ ही ‘द हज’के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनीपुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकल करआए हैं, वे न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं। 
उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बन कर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमरीका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, आस्ट्रेलिया में 1.5, कनाडा में 1.9, चीन में 1.8, इटली में 1.5 और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है। 
 
जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुंच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलंबियों में अपना धर्मप्रचार शुरू कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन और थाईलैंड में जहां क्रमश: 2, 3.7, 2.7, 4 और 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं। 
 
जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलंबियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिए वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि ‘हलाल’ का मांस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यताएं प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्कीट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहां ‘हलाल’ का मांस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं। 
 
इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहां से मजबूत होना शुरू हो जाता है, जिन देशों में ऐसा हो चुका है, वे फ्रांस, फिलीपींस, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाए। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले। 
 
जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिए परेशानी पैदा करना शुरू कर देते हैं, शिकायतें करना शुरू कर देते हैं, उनकी ‘आॢथक परिस्थिति’ का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़-फोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों डेनमार्क का कार्टून विवाद हो या फिर एम्सटर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवादको समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 प्रतिशत), इसराईल (16 प्रतिशत), केन्या (11 प्रतिशत), रूस (15 प्रतिशत) में हो चुका है। 
 
जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न ‘सैनिक शाखाएं’ जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरू हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 प्रतिशत) और भारत (मुसलमान 22 प्रतिशत) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुंच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याएं, आतंकवादी कार्रवाइयां आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 प्रतिशत), चाड (मुसलमान 54.2 प्रतिशत)  और लेबनान (मुसलमान 59 प्रतिशत) में देखा गया है। शोधकत्र्ता और लेखक डा. पीटर हैमंड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरू किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोडऩा, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 प्रतिशत), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 प्रतिशत) में देखा गया है। 
 
किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 प्रतिशत हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बंगलादेश (मुसलमान 83 प्रतिशत), मिस्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 प्रतिशत), ईरान (98 प्रतिशत), ईराक (97 प्रतिशत), जोर्डन (93 प्रतिशत), मोरक्को (98 प्रतिशत), पाकिस्तान (97 प्रतिशत), सीरिया (90 प्रतिशत) व संयुक्त अरब अमीरात (96 प्रतिशत) में देखा जा रहा है। 
 
ये ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें बिना धर्मांधता के चश्मे के हर किसी को देखना और समझना चाहिए। चाहे वे मुसलमान ही क्यों न हों। अब फर्ज उन मुसलमानों का बनता है, जो खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हैं, वे संगठित होकर आगे आएं और इस्लाम धर्म के साथ जुडऩे वाले इस विश्लेषणों से पैगंबर साहब के मानने वालों को मुक्त कराएं, अन्यथा न तो इस्लाम के मानने वालों का भला होगा और न ही बाकी दुनिया का। 

Saturday 20 June 2015

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की असली जन्मकुण्डली
आर.एस.एस., यानी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद को एक सांस्कृतिक संगठन व “सच्चे देशभक्तों” का संगठन बताता है। उसका दावा है कि उसकी विचारधारा हिन्दुत्व और “राष्ट्रवाद” है। उनके राष्ट्र की परिभाषा क्या है यह आर.एस.एस. की शाखाओं में प्रचलित “प्रार्थना” और “प्रतिज्ञा” से साफ़ हो जाता है। अपनी “प्रार्थना” और “प्रतिज्ञा” में संघी हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति और हिन्दू समाज की रक्षा की बात करते हैं। स्पष्ट है कि धर्मनिरपेक्षता और जनवाद में इनका कोई यक़ीन नहीं है। हिन्दू समाज की भी संघियों की अपनी अपनी परिभाषा है। हिन्दुओं से इनका मतलब मुख्य और मूल रूप से उच्च जाति के हिन्दू पुरुष हैं। संघी ‘मनुस्मृति’ को भारत के संविधान के रूप में लागू करना चाहते थे। वही ‘मनुस्मृति’ जिसके अनुसार एक इंसान की जाति ही तय करती है कि समाज में उसका स्थान क्या होगा और जो इस बात की हिमायती है कि पशु, शूद्र और नारी सभी ताड़न के अधिकारी हैं। आर.एस.एस. का ढाँचा लम्बे समय तक सिर्फ़ पुरुषों के लिए ही खुला था। संघ के “हिन्दू राष्ट्र” की सदस्यता उच्च वर्ण के हिन्दू पुरुषों के लिए ही खुली है; बाकियों को दोयम दर्जे की स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए; यानी, कि मुसलमानों, ईसाइयों, दलितों, स्त्रियों आदि को। संघ के तमाम कुकृत्यों पर चर्चा करना यहाँ हमारा मक़सद नहीं है क्योंकि उसके लिए तो एक वृहत् ग्रन्थ लिखने की ज़रूरत पड़ जायेगी। हमारा मक़सद है उन सभी कुकृत्यों के पीछे काम करने वाली विचारधारा और राजनीति का एक संक्षिप्त विवेचन करना।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा क्या है? अगर संघ के सबसे लोकप्रिय सरसंघचालक गोलवलकर और संस्थापक हेडगेवार के प्रेरणा-स्रोतों में से एक मुंजे की जुबानी सुनें तो संघ की विचारधारा स्पष्ट तौर पर फ़ासीवाद है। गोलवलकर ने अपनी पुस्तकों ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड’ और ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में स्पष्ट शब्दों में इटली के फासीवाद और जर्मनी के नात्सीवाद की हिमायत की। हिटलर ने यहूदियों के सफाये के तौर पर जो ‘अन्तिम समाधान’ पेश किया, गोलवलकर ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है और लिखा है कि हिन्दुस्तान में भी हिन्दू जाति की शुद्धता की हिफ़ाज़त के लिए इसी प्रकार का ‘अन्तिम समाधान’ करना होगा। संघ का सांगठनिक ढांचा भी मुसोलिनी और हिटलर की पार्टी से हूबहू मेल खाता है। इटली का फ़ासीवादी नेता मुसोलिनी जनतंत्र का कट्टर विरोधी था और तानाशाही में आस्था रखता था। मुसोलिनी के मुताबिक “एक व्यक्ति की सरकार एक राष्ट्र के लिए किसी जनतंत्र के मुकाबले ज़्यादा असरदार होती है।” फ़ासीवादी पार्टी में ‘ड्यूस’ के नाम पर शपथ ली जाती थी, जबकि हिटलर की नात्सी पार्टी में ‘फ़्यूहरर’ के नाम पर। संघ का ‘एक चालक अनुवर्तित्व’ जिसके अन्तर्गत हर सदस्य सरसंघचालक के प्रति पूर्ण कर्मठता और आदरभाव से हर आज्ञा का पालन करने की शपथ लेता है, उसी तानाशाही का प्रतिबिम्बन है जो संघियों ने अपने जर्मन और इतावली पिताओं से सीखी है। संघ ‘कमाण्ड स्ट्रक्चर’ यानी कि एक केन्द्रीय कार्यकारी मण्डल, जिसे स्वयं सरसंघचालक चुनता है, के ज़रिये काम करता है, जिसमें जनवाद की कोई गुंजाइश नहीं है। यही विचारधारा है जिसके अधीन गोलवलकर (जो संघ के सबसे पूजनीय सरसंघचालक थे) ने 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद् के प्रथम अधिवेशन को भेजे अपने सन्देश में भारत में संघीय ढाँचे (फेडरल स्ट्रक्चर) को समाप्त कर एकात्म शासन प्रणाली को लागू करने का आह्वान किया था। संघ मज़दूरों पर पूर्ण तानाशाही की विचारधारा में यक़ीन रखता है और हर प्रकार के मज़दूर असन्तोष के प्रति उसका नज़रिया दमन का होता है। यह अनायास नहीं है कि इटली और जर्मनी की ही तरह नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में मज़दूरों पर नंगे किस्म की तानाशाही लागू कर रखी है। अभी हड़ताल करने पर कानूनी प्रतिबन्ध तो नहीं है, लेकिन अनौपचारिक तौर पर प्रतिबन्ध जैसी ही स्थिति है; श्रम विभाग को लगभग समाप्त कर दिया गया है, और मोदी खुद बोलता है कि गुजरात में उसे श्रम विभाग की आवश्यकता नहीं है! ज़ाहिर है-मज़दूरों के लिए लाठियों-बन्दूकों से लैस पुलिस और सशस्त्र बल तो हैं ही! जर्मनी और इटली में भी इन्होंने पूँजीपति वर्ग की तानाशाही को सबसे बर्बर और नग्न रूप में लागू किया था और यहाँ भी उनकी तैयारी ऐसी ही है। जर्मनी और इटली की ही तरह औरतों को अनुशासित करके रखने, उनकी हर प्रकार की स्वतन्त्रता को समाप्त कर उन्हें चूल्हे-चौखट और बच्चों को पैदा करने और पालने-पोसने तक सीमित कर देने के लिए संघ के अनुषंगी संगठन तब भी तत्पर रहते हैं, जब भाजपा शासन में नहीं होती। श्रीराम सेने, बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद् के गुण्डे लड़कियों के प्रेम करने, अपना जीवन साथी अपनी इच्छा से चुनने, यहाँ तक कि जींस पहनने और मोबाइल इस्तेमाल करने तक पर पाबन्दी लगाने की बात करते हैं। यह बात अलग है कि यही सलाह वे कभी सुषमा स्वराज, वसुन्धरा राजे, उमा भारती, या मीनाक्षी लेखी को नहीं देते जो कि औरतों को गुलाम बनाकर रखने के मिशन में उनके साथ खड़ी औरतें हैं! गोलवलकर ने स्वयं औरतों के बारे में ऐसे विचार व्यक्त किये हैं। उनके विचारों पर अमल हो तो औरतों का कार्य “वीर हिन्दू पुरुषों” को पैदा करना होना चाहिए!
जहाँ तक बात इनके “राष्ट्रवादी” होने की है, तो भारतीय स्वतन्त्र संग्राम के इतिहास पर नज़र डालते ही समझ में आ जाता है कि यह एक बुरे राजनीतिक चुटकुले से ज़्यादा और कुछ भी नहीं है। संघ के किसी भी नेता ने कभी भी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ अपना मुँह नहीं खोला। जब भी संघी किसी कारण पकड़े गए तो उन्होंने बिना किसी हिचक के माफ़ीनामे लिख कर, अंग्रेजी हुकूमत के प्रति अपनी वफ़ादारी साबित की है। स्वयं पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपयी ने भी यही काम किया था। संघ ने किसी भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन में हिस्सा नहीं लिया। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के दौरान संघ ने उसका बहिष्कार किया। संघ ने हमेशा ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी वफ़ादारी बनायी रखी और देश में साम्प्रदायिकता फैलाने का अपना काम बखूबी किया। वास्तव में साम्प्रदायिकता फैलाने की पूरी साज़िश तो ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के ही दिमाग़ की पैदावार थी और ‘बाँटो और राज करो’ की उनकी नीति का हिस्सा थी। लिहाज़ा, संघ के इस काम से उपनिवेशवादियों को भी कभी कोई समस्या नहीं थी। ब्रिटिश उपनिवेशवादी राज्य ने भी इसी वफ़ादारी का बदला चुकाया और हिन्दू साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों को कभी अपना निशाना नहीं बनाया। आर.एस.एस. ने हिन्दुत्व के अपने प्रचार से सिर्फ़ और सिर्फ़ साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ हो रहे देशव्यापी आन्दोलन से उपजी कौमी एकजुटता को तोड़ने का प्रयास किया। ग़ौरतलब है कि अपने साम्प्रदायिक प्रचार के निशाने पर आर.एस.एस. ने हमेशा मुसलमानों, कम्युनिस्टों और ट्रेड यूनियन नेताओं को रखा और ब्रिटिश शासन की सेवा में तत्पर रहे। संघ कभी भी ब्रिटिश शासन-विरोधी नहीं था, यह बात गोलवलकर के 8 जून, 1942 में आर.एस.एस. के नागपुर हेडक्वार्टर पर दिए गए भाषण से साफ़ हो जाती है – “संघ किसी भी व्यक्ति को समाज के वर्तमान संकट के लिये ज़िम्मेदार नहीं ठहराना चाहता। जब लोग दूसरों पर दोष मढ़ते हैं तो असल में यह उनके अन्दर की कमज़ोरी होती है। शक्तिहीन पर होने वाले अन्याय के लिये शक्तिशाली को ज़िम्मेदार ठहराना व्यर्थ है।…जब हम यह जानते हैं कि छोटी मछलियाँ बड़ी मछलियों का भोजन बनती हैं तो बड़ी मछली को ज़िम्मेदार ठहराना सरासर बेवकूफ़ी है। प्रकृति का नियम चाहे अच्छा हो या बुरा सभी के लिये सदा सत्य होता है। केवल इस नियम को अन्यायपूर्ण कह देने से यह बदल नहीं जाएगा।” अपनी बात को स्पष्ट करने के लिये इतिहास के उस कालक्रम पर रोशनी डालेंगे जहाँ संघ की स्थापना होती है। यहीं संघ की जड़ों में बसी प्रतिक्रियावादी विचारधारा स्पष्ट हो जाएगी।
आर.एस.एस. की स्थापना 1925 में नागपुर में विजयदशमी के दिन हुई थी। केशव बलिराम हेडगेवार आर.एस.एस. के संस्थापक थे। भारत में फ़ासीवाद उभार की ज़मीन एक लम्बे अर्से से मौजूद थी। आज़ादी के पहले 1890 और 1900 के दशक में भी हिन्दू और इस्लामी पुनुरुत्थानवादी ताकतें मौजूद थी पर उस समय के कुछ प्रगतिवादी राष्ट्रवादी नेताओं के प्रयासों द्वारा हिन्दू व इस्लामी पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रियावाद ने कोई उग्र रूप नहीं लिया। फ़ासीवादी उभार की ज़मीन हमेशा पूँजीवादी विकास से पैदा होने वाली बेरोज़गारी, गरीबी, भुखमरी, अस्थिरता, असुरक्षा, और आर्थिक संकट से तैयार होती है। भारत ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेश था। यहाँ पूँजीवाद अंग्रेज़ों द्वारा आरोपित औपनिवेशक व्यवस्था के भीतर पैदा हुआ। एक उपनिवेश होने के कारण भारत को पूँजीवाद ब्रिटेन से गुलामी के तोहफ़े के तौर पर मिला। भारत में पूँजीवाद किसी बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के ज़रिये नहीं आया। इस प्रकार से आये पूँजीवाद में जनवाद, आधुनिकता, तर्कशीलता जैसे वे गुण नहीं थे जो यूरोप में क्रान्तिकारी रास्ते से आये पूँजीवाद में थे। इस रूप में यहाँ का पूँजीपति वर्ग भी बेहद प्रतिक्रियावादी, अवसरवादी और कायर किस्म का था जो हर प्रकार के प्रतिक्रियावाद को प्रश्रय देने को तैयार था। आज़ादी के बाद यहाँ हुए क्रमिक भूमि सुधारों के कारण युंकरों जैसा एक पूँजीवादी भूस्वामी वर्ग भी मौजूद था। गाँवों में भी परिवर्तन की प्रक्रिया बेहद क्रमिक और बोझिल रही जिसने संस्कृति और सामाजिक मनोविज्ञान के धरातल पर प्रतिक्रिया के लिए एक उपजाऊ ज़मीन मुहैया करायी। निश्चित तौर पर, उन्नत पूँजीवादी देशों में भी, जहाँ पूँजीवादी जनवादी क्रान्तियाँ हुई थीं, फासीवादी उभार हो सकता है और आज हो भी रहा है। लेकिन निश्चित तौर पर फासीवादी उभार की ज़मीन उन समाजों में ज़्यादा मज़बूत होगी जहाँ आधुनिक पूँजीवादी विकृति, रुग्णता, बर्बादी और तबाही के साथ मध्ययुगीन सामन्ती बर्बरता, निरंकुशता और पिछड़ापन मिल गया हो। भारत में ऐसी ज़मीन आज़ादी के बाद पूँजीवादी विकास के शुरू होने के साथ फासीवादी ताक़तों को मिली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हिन्दुत्ववादी फासीवाद इसी ज़मीन पर पला-बढ़ा है।
आज जब पूँजीवाद अपने संकट का बोझ मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी पर डाल रहा है और महँगाई, बेरोज़गारी और भूख से उन पर कहर बरपा कर रहा है, तो जनता के आन्दोलन भी सड़कों पर फूट रहे हैं। चाहे वह मज़दूरों के आन्दोलन हों, ठेके पर रखे गये शिक्षकों, नर्सों और अन्य कर्मकारों के आन्दोलन हों, या फिर शिक्षा और रोज़गार के अधिकार के लिए छात्रों-युवाओं के आन्दोलन हों। यदि कोई क्रान्तिकारी विकल्प न हो तो पूँजीवाद के इसी संकट से समाज में उजड़ा हुआ टुटपुँजिया पूँजीपति वर्ग और लम्पट सर्वहारा वर्ग फ़ासीवादी प्रतिक्रिया का आधार बनते हैं। । ब्रिटिश भारत में भी फासीवादी विचारधारा का सामाजिक आधार इन्हीं वर्गों के ज़रिये पैदा हुआ था।
भारत के महाराष्ट्र में ऐसा टटपूँजिया वर्ग मौजूद था। महाराष्ट्र के व्यापारी और ब्राह्मण ही आर.एस.एस. का शुरुआती आधार बने। 1916 के लखनऊ समझौते और खिलाफ़त आन्दोलन के मिलने से धार्मिक सौहार्द्र की स्थिति बनी रही। परन्तु इस दौरान भी ‘हिन्दू महासभा’ जैसे हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन मौजूद थे। गाँधी द्वारा असहयोग आन्दोलन के अचानक वापस लिए जाने से एक हताशा फैली और ठहराव की स्थिति आयी। इतिहास गवाह है कि ऐसी हताशा और ठहराव की स्थितियों में ही प्रतिक्रियावादी ताक़तें सिर उठाती हैं और जनता को ‘गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं’ जैसा कि भगतसिंह ने कहा था। भारत का बुर्जुआ वर्ग एक तरफ़ साम्राज्यवाद से राजनीतिक स्वतन्त्रता चाहता था, तो वहीं वह मज़दूरों और किसानों के जाग जाने और विद्रोह का रास्ता अख्‍त़ियार करने से लगातार भयभीत भी रहता था। इसीलिए गाँधी ने कभी मज़दूरों को संगठित करने का प्रयास नहीं किया; उल्टे जब गुजरात के मज़दूरों ने गाँधी का जुझारू तरीके से साथ देने की पेशकश की तो गाँधी ने उन्हें शान्तिपूवर्क काम करने की हिदायत दी और कहा कि मज़दूर वर्ग को राजनीतिक तौर पर छेड़ा नहीं जाना चाहिए। यही कारण था कि असहयोग आन्दोलन के क्रान्तिकारी दिशा में मुड़ने के पहले संकेत मिलते ही गाँधी ने कदम पीछे हटा लिये और अंग्रेज़ों से समझौता कर लिया। भारतीय रुग्ण पूँजीपति वर्ग का राजनीतिक चरित्र ही दोहरा था। इसलिए उसने पूरी स्वतन्त्रता की लड़ाई में कभी आमूलगामी रास्ता अख्‍त़ियार नहीं किया और हमेशा ‘दबाव-समझौता-दबाव’ की रणनीति अपनायी ताकि जनता की क्रान्तिकारी पहलकदमी को निर्बन्ध किये बिना, एक समझौते के रास्ते एक पूँजीवादी राजनीतिक स्वतन्त्रता मिल जाये। गाँधी और कांग्रेस की यह रणनीति भी भारत में फासीवाद के उदय के लिए ज़िम्मेदार थी। मिसाल के तौर पर असहयोग आन्दोलन के वापस लिये जाने के बाद जो हताशा फैली उसी के कारण प्रतिक्रियावादी ताक़तें हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ने में सफल हुईं। एक तरफ़ इस्लामी कट्टरपंथ तो दूसरी ओर हिन्दू पुनरुत्थानवाद की लहर चल पड़ी। सावरकर बंधुओं का समय यही था। आर.एस.एस. की स्थापना इन्हीं सब घटनाओं की पृष्ठभूमि में हुई।
संघ के संस्थापक हेडगेवार संघ के निर्माण से पहले कांग्रेस के साथ जुड़े थे। 1921 में ख़िलाफ़त आन्दोलन के समर्थन में दिए अपने भाषण की वजह से उन्हें एक साल की जेल हुई। आर.एस.एस. के द्वारा ही छापी गयी उनकी जीवनी “संघवृक्ष के बीज” में लिखा है कि जेल में रहते हुए स्वतंत्रता संग्राम में हासिल हुए अनुभवों ने उनके मस्तिष्क में कई सवाल पैदा किये और उन्हें लगा कि कोई और रास्ता ढूँढा जाना चाहिए। इसी किताब में यह भी लिखा हैं कि हिन्दुत्व की ओर हेडगेवार का रुझान 1925 में शुरू हुआ। बात साफ़ है, जेल जाने के पश्चात जो “बौद्धिक ज्ञान” उन्हें हासिल हुआ उसके बाद उन्होंने आर.एस.एस. की स्थापना कर डाली। हेडगेवार जिस व्यक्ति के सम्पर्क में फ़ासीवादी विचारों से प्रभावित हुए वह था मूंजे। मूंजे वह तार है जो आर.एस.एस. के संस्थापक हेडगेवार और मुसोलिनी के फ़ासीवादी विचारों से संघ की विचारधारा को जोड़ता है। मज़ि‍र्आ कसोलरी नामक एक इतालवी शोधकर्ता ने आर.एस.एस. के संस्थापकों और नात्सियों व इतालवी फ़ासीवादियों के बीच के सम्पर्कों पर गहन शोध किया है। कसोलरी के अनुसार हिन्दू राष्ट्रवादियों की फ़ासीवाद और मुसोलिनी में रुचि कोई अनायास होने वाली घटना नहीं है, जो केवल चन्द लोगों तक सीमित थी, बल्कि यह हिन्दू राष्ट्रवादियों, ख़ासकर महाराष्ट्र में रहने वाले हिन्दू राष्ट्रवादियों के इतालवी तानाशाही और उनके नेताओं की विचारधारा से सहमति का नतीजा था। इन पुनरुत्थानवादियों को फ़ासीवाद एक “रूढ़िवादी क्रान्ति” के समान प्रतीत होता था। इस अवधारणा पर मराठी प्रेस ने इतालवी तानाशाही की उसके शुरुआती दिनों से ही खूब चर्चा की। 1924-1935 के बीच आर.एस.एस. से करीबी रखने वाले अखबार ‘केसरी’ ने इटली में फ़ासीवाद और मुसोलिनी की सराहना में कई सम्पादकीय और लेख छापे। जो तथ्य मराठी पत्रकारों को सबसे अधिक प्रभावित करता था वह था फ़ासीवाद का “समाजवाद” से उद्भव, जिसने इटली को एक पिछड़े देश से एक विश्व शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया। अपने सम्पादकियों की एक श्रृंखला में केसरी ने इटली के उदारवादी शासन से तानाशाही तक की यात्रा को अराजकता से एक अनुशासित स्थिति की स्थापना बताया। मराठी अखबारों ने अपना पर्याप्त ध्यान मुसोलिनी द्वारा किये गए राजनीतिक सुधारों पर केन्द्रित रखा, ख़ास तौर पर संसद को हटा कर उसकी जगह ‘ग्रेट कॅाउंसिल ऑफ़ फ़ासिज़्म’ की स्थापना। इन सभी तथ्यों से यह साफ़ हो जाता है कि 1920 के अन्त तक महाराष्ट्र में मुसोलिनी की फ़ासीवादी सत्ता अखबारों के माध्यम से काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर रही थी। फ़ासीवाद का जो पहलू हिन्दू राष्ट्रवादियों को सबसे अधिक आकर्षक लगा वह था समाज का सैन्यकरण जिसने एक तानाशाह की अगुवाई में समाज का रूपान्तरण कर दिया था। इस लोकतंत्र-विरोधी व्यवस्था को हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा ब्रिटिश मूल्यों वाले लोकतंत्र के मुकाबले एक सकारात्मक विकल्प के रूप में देखा गया।
पहला हिन्दू राष्ट्रवादी जो फ़ासीवाद सत्ता के सम्‍पर्क में आया वह था हेडगेवार का उस्ताद मुंजे। मुंजे ने संघ को मज़बूत करने और उसे देशव्यापी संस्था बनाने की अपनी इच्छा व्यक्त की, जो जगजाहिर है। 1931 फ़रवरी-मार्च के बीच मूंजे ने राउण्ड टेबल कान्फ्रेंस से लौटते हुए यूरोप की यात्रा की, जिस दौरान उसने मुसोलिनी से मुलाकात भी की। मूंजे ने रोम में इतालवी फ़ासीवादियों के मिलिट्री कॅालेज – फ़ासिस्ट अकेडमी ऑफ़ फिजिकल एजुकेशन, सेंट्रल मिलिट्री स्कूल ऑफ़ फ़िजिकल एजुकेशन और इन सबमें से सबसे महत्वपूर्ण बलिल्ला और एवां गारडिस्ट आर्गेनाइजेशन के गढ़ों को जाकर बहुत बारीकी से देखा। इससे मुंजे बहुत प्रभावित हुआ। ये स्कूल या कॉलेज शिक्षा के केंद्र नहीं थे बल्कि मासूम बच्चों और लड़कों के दिमागों में ज़हर गोलकर, उनका ‘ब्रेनवॉश’ करने के सेण्टर थे। यहाँ 6 वर्ष से 18 वर्ष की आयु के युवकों की भर्ती कर उन्हें फ़ासीवादी विचारधारा के अधीन करने के पूरे इंतज़ाम थे। आर.एस.एस. का यह दावा कि इसका ढाँचा हेडगेवार के काम और सोच का नतीजा था एक सफ़ेद झूठ है क्योंकि संघ के स्कूल व अन्य संस्थाएँ और खुद संघ का पूरा ढाँचा इतावली फ़ासीवाद पर आधारित है। और उनसे हूबहू मेल खाता है। भारत वापस आते ही, मुंजे ने हिन्दुओं के सैन्यीकरण की अपनी योजना ज़मीन पर उतारनी शुरू कर दी। पुणे पहुँच कर मुंजे ने “द मराठा” को दिए एक साक्षात्कार में हिन्दू समुदाय के सैन्यीकरण के सम्बन्धों में निम्नलिखित बयान दिया, “नेताओं को जर्मनी के युवा आन्दोलन, बलिल्ला और इटली की फ़ासीवादी संगठनों से सीख लेनी चाहिए।”
मुंजे और आर.एस.एस. की करीबी और इनकी फ़ासीवादी विचारधारा की पुष्टि 1933 में ब्रिटिश सूत्रों में छपी खुफ़िया विभाग की रिपोर्ट से हो जाती है। इस रिपोर्ट का शीर्षक था “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर टिप्पणी” जिसमें संघ के मराठी भाषी क्षेत्रों में पुर्नगठन का ज़िम्मेदार मुंजे को ठहराया गया है। इस रिपोर्ट में आर.एस.एस. के चरित्र, इनकी गतिविधियों के बारे में कहा था कि – “यह कहना सम्भवतः कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा कि संघ भविष्य में भारत के लिए वह बनना चाहता है जो फ़ासीवादी इटली के लिए हैं और नात्सी लोग जर्मनी के लिए हैं।” (नेशनल आर्काइव ऑफ़ इण्डिया) 1934 में मुंजे ने अपनी एक संस्था “भोंसला मिलिट्री स्कूल” की नींव रखी, उसी साल मुंजे ने “केन्द्रीय हिन्दू सैन्य शिक्षा समाज’, जिसका मुख्य उद्देश्य हिन्दुओं के सैन्य उत्थान और हिन्दू युवाओं को अपनी मातृभूमि कि रक्षा करने योग्य बनाना था, की बुनियाद भी रखी। जब भी मुंजे को हिन्दू समाज के सैन्यकरण के व्यावहारिकता का उदहारण देने की ज़रूरत महसूस हुई तो उसने इटली की सेना और अर्द्धसेना ढाँचे के बारे में जो स्वयं देखा था, वह बताया। मुंजे ने बलिल्ला और एवां गार्डिस्टों के सम्बन्ध में विस्तारित विवरण दिए। जून 1938 में मुम्बई में स्थित इतावली वाणिज्य दूतावास ने भारतीय विद्यार्थियों को इतालवी भाषा सिखने के लिए भर्ती शुरू की, जिसके पीछे मुख्य उद्देश्य युवाओं को इटली के फ़ासीवादी प्रचार का समर्थक बनाना था। मारिओ करेली नाम के एक व्यक्ति को इस कार्य के लिए रोम से भारत भेजा गया। भर्ती किये गए विद्यार्थियों में से एक माधव काशीनाथ दामले, ने करेली के सुझाव के बाद मुसोलिनी की पुस्तक “फ़ासीवाद का सिद्धांत” का मराठी में अनुवाद किया और उसे 1939 में एक श्रृंखलाबद्ध तरीके से लोहखंडी मोर्चा (आयरन फ्रण्ट) नामक पत्रिका में छापा गया। महाराष्ट्र में फैले फ़ासीवादी प्रभाव का एक और उदाहरण एम.आर. जयकर, जो हिन्दू महासभा के एक प्रतिष्ठित नेता थे, द्वारा गठित ‘स्वास्तिक लीग’ थी। 1940 में नात्सियों के असली चरित्र के सामने आने के साथ इस लीग ने खुद को नात्सीवाद से अलग कर लिया।
ओरिजीत सेन का कार्टून 1930 के अन्त तक, आर.एस.एस. की पैठ महाराष्ट्र के ब्राह्मण समाज में बन गयी थी। हेडगेवार ने मुंजे के विचारों से सहमति ज़ाहिर करते हुए, संघ की शाखाओं में फ़ासीवादी प्रशिक्षण की शुरुआत की। लगभग इसी समय विनायक दामोदर सावरकर, जिसके बड़े भाई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापकों में से एक थे, ने जर्मनी के नात्सियों द्वारा यहूदियों के सफ़ाये को सही ठहराया और भारत में मुसलमानों की “समस्या” का भी यही समाधान सुझाया। जर्मनी में “यहूदी प्रश्न’ का अन्तिम समाधान सावरकर के लिए मॉडल था। संघियों के लिए राष्ट्र के सबसे बड़े दुश्मन थे मुसलमान! ब्रिटिश साम्राज्य उनकी निन्दा या क्रोध का कभी पात्र नहीं था। आर.एस.एस. ऐसी गतिविधियों से बचता था जो अंग्रेजी सरकार के खिलाफ़ हों। संघ द्वारा ही छपी हेडगेवार की जीवनी जिसका ज़िक्र पहले भी लेख में किया जा चुका है, में ‘डाक्टर साहब’ की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका का वर्णन करते हुए बताया गया है कि संघ स्थापना के बाद ‘डाक्टर साहब’ अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के सम्बन्ध में ही बोला करते थे। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका न के बराबर रहा करती थी। हेडगेवार ने मृत्यु से पहले गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गोलवलकर 1940 से 1973 तक संघ के सुप्रीमो रहे। गोलवलकर के ही नेतृत्व में संघ के वे सभी संगठन अस्तित्व में आये जिन्हें हम आज जानते हैं। गोलवलकर ने संघ की फ़ासीवादी विचारधारा को एक सुव्यवस्थित रूप दिया और इसकी पहुँच को महाराष्ट्र के ब्राह्मणों से बाहर निकाल अखिल भारतीय संगठन का रूप दिया। संघ ने इसी दौरान अपने स्कूलों का नेटवर्क देश भर में फैलाया। संघ की शाखाएँ भी गोलवलकर के नेतृत्व में पूरे देश में बड़े पैमाने पर फैलीं। यही कारण है कि संघ के लोग उन्हें गुरु जी कहकर सम्बोधित करते हैं।
इनके किये-धरे पर लिखना हो तो पूरी किताब लिखी जा सकती है। और कई अच्छी किताबें मौजूद भी हैं परन्तु हमारा यह मकसद नहीं था। हमारा यहाँ सिर्फ़ यह मकसद था कि यह दिखाया जाए कि संघ का विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांगठनिक ढाँचा एक फ़ासीवादी संगठन का ढाँचा है। इसकी विचारधारा फ़ासीवाद है। अपने को राष्ट्रवादी कहने वाले और इटली व जर्मनी के फासीवादियों व नात्सियों से उधार ली निक्कर, कमीज़ और टोपी पहन कर इन मानवद्रोहियों ने देश और धर्म के नाम पर अब तक जो उन्माद फैलाया है वह फ़ासीवादी विचारधारा को भारतीय परिस्थितियों में लागू करने का नतीजा है। भारतीय संस्कृति, भारतीय अतीत के गौरव, और भाषा आदि की दुहाई देना तो बस एक दिखावा है। संघ परिवार तो अपनी विचारधारा, राजनीति, संगठन और यहाँ तक कि पोशाक से भी पश्चिमपरस्त है! और पश्चिम का अनुसरण करने में भी इसने वहाँ के जनवादी और प्रगतिशील आदर्शों का अनुसरण करने की बजाय, वहाँ की सबसे विकृत, मानवद्रोही और बर्बर विचारधारा, यानी कि फासीवाद-नात्सीवाद का अनुसरण किया है। हमारा मक़सद ‘संस्कृति’, ‘धर्म’ और ‘राष्ट्रवाद’ की दुहाई देने वाले इन फासीवादियों की असली जन्मकुण्डली को आपके सामने खोलकर रखना था, क्योंकि पढ़ी-लिखी आबादी और विशेषकर नौजवानों का एक हिस्सा भी देशभक्ति करने के महान उद्देश्य से इन देशद्रोहियों के चक्कर में फँस जाता है। इसलिए ज़रूरी है कि इनके पूरे इतिहास को जाना जाय और समझा जाय कि देशप्रेम, राष्ट्रप्रेम से इनका कभी लेना-देना था ही नहीं। यह देश में पूँजीपतियों की नंगी तानाशाही लागू करने के अलावा और कुछ नहीं करना चाहते।

Friday 19 June 2015

योग शास्त्र !यह विरोधाभास क्यों? 
# आजकल योग शास्त्र का राज्य आश्रय के कारण खूब प्रचार प्रसार हो रहा है. 21जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाया जा रहा है. अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से योग को सर्वरोगविनाशक एवं सर्वव्याधिनाशनी संजीवनी के रूप में प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है. 
कुछ बहुचर्चित योगासनों के लाभ कुछ इस तरह बताये गए हैं :-
* एतद् व्याधिविनाशकारणपरं पद्मासनं प्रोच्यते (घेरंड संहिता 2/8).अर्थात पद्मासन सब व्याधियों का विनाशक है.
* भद्रासनं भवेदेतत् सर्वव्याधि विनाशकम् (घेरंड़ संहिता 2/10).अर्थात भद्रासन सब व्याधियों का विनाशक है.
* सिंहासन भवेदेतत् सर्वव्याधिविनाशकम् (घेरंड़ संहिता 2/15).अर्थात सिंहासन सब व्याधियों का विनाशक है.
* मत्स्यासनं तु रोगहा (घेरंड़ संहिता 2/21).अर्थात मत्स्यासन रोगों को दूर करने वाला है.
* सर्वरोगविनाशनम् भुजंगासनं (घेरंड़ संहिता 2/42).अर्थात भुजंगासन समस्त रोगों को नाश करता है.
# तर्कसंगत जिज्ञासा :-यदि योगासन असाधारण रूप से वास्तव में सर्वरोगविनाशक संजीवनी स्वरूप हैं तो 21शताब्दी में योगशास्त्र के सब से बडा ठेकेदार बाबा रामदेव प्रतिवर्ष करोड़ों रूपयों की औषधि का धन्धा क्यों कर रहा है? उपरोक्त वर्णित महारोगविनाशक आसनों की सहायता से अपनी आंख का सफल इलाज क्यों नहीं करता जो बचपन में Facial Paralysis (मुहं का पक्षाघात )से ग्रसित होने के कारण संकुचित है, जिस से अश्रुपूर्ण स्त्राव रिसता रहता है और जिस में uncontrolled movement होती रहती है.
वैसे काफी लोगों को याद है कि 1883 ई. में आर्यसमाज के संस्थापक योगीराज स्वामी दयानंद सरस्वती को दूध में विष दिया गया था. उन्हें योगासन के महारथी के रूप में परिभाषित किया जाता है, परन्तु कोई भी आसन, प्राणायाम तथा योग क्रिया उन्हें विष के घातक दुष्प्रभाव से नहीं बचा सका और उन की मृत्यु अल्पायु में ही हो गई.
क्या मोदी सरकार पतंजलि योगसूत्र, घेरंड़ संहिता तथा अन्य सम्बन्धित ग्रन्थों में वर्णित महाअसाधारण टोटकों की पृष्टभूमि में देश के सभी छोटे बड़े चिकित्सालय बंद करके आर्थिक एवं सामाजिक विकास की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान करने जा रही है???

Thursday 18 June 2015

EXTRAVAGANT MUCH PUBLICIZED YOGA SPECTACLE  TODAY;
A PRESCRIPTION FOLLOWED WITH A PROSCRIPTION !
  The new ruling arrangement in New Delhi is already trying to interfere with our private food habits and choices. A larger theme at work can be discerned. There is a pronounced inclination to smuggle in trusted RSS apparatchiks into cultural institutions who, then, can be trusted to ensure that we watch the “right” kind of movies, read the “right” kind of books and learn and teach the “right” kind of history. All this in the name of a newly acquired insistence that the majority's sentiments ought to be respected.
Nothing out of the ordinary.  After all, the Sangh Parivar has always been contemptuous of constitutionally mandated democratic norms, secular practices and egalitarian values.  It has always positioned the (Hindu) majority and its religious preferences as superior to constraints and restraints inherent in our constitutional order. The Modi government's penchant for mass mobilisation of sentiments and sensibilities can only be understood as part of a carefully thought-out redefining of notions of democratic legitimacy. The June 21 collectivist tableau is meant to soften us up for the new narrative. 
Twentieth century European history teaches us enough about authoritarian rulers using grand spectacles of crowd mobilization to make citizens comfortable with the idea and practices of regimentation. From the days of the Nuremberg rally, so hypnotically captured by Leni Riefenstahl in that iconic documentary, “Triumph of the Will”, authoritarian rulers have found ways of using crowds to induce a willing abdication of the citizen’s right to question the regime and its whims and fancies. 
 The nation has already been wooed silently into rejoicing in an authoritarian personality cult around the Prime Minister.  Add to it this new itch to experiment with collectivist projects like the Rajpath spectacle. The deadly mix can easily calcify into something less than a democratic arrangement.

Wednesday 17 June 2015

हम सब एक हैं ;साथ साथ हैं !
सुषमा स्वराज का यह कहना कि उसने मानवीय आधार पर ललित मोदी की मदद की थी, यह तर्क स्वीकार नहीं हो सकता है। यह तर्क बचाव का हथकंडा ही माना जाएगा। देश के अंदर ललित मोदी की पत्नी की तरह हजारों-लाखों कैंसर की मरीज हैं। कई अन्य गंभीर बीमारियों के मरीज हैं, पर उन्हें सुषमा स्वराज जैसे नेता व मंत्री मानवीय आधार पर कौन-सी सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं और मदद देते हैं?
अगर ललित मोदी कोई आम आदमी, किसान, मजदूर, छोटा-मोटा व्यापारी होता तो क्या वह सुषमा स्वराज के कार्यालय तक भी पहुंच सकता था? सुषमा स्वराज के कार्यालय के बाहर ही प्रहरी उसे डांट-फटकार कर भगा देते। पुर्तगाल सरकार के नियम-कानून भी सुषमा स्वराज को घेरने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। पुर्तगाल में आप्रेशन के लिए वयस्क मरीज खुद डैक्लेरेशन दे सकता है, इसलिए वहां पर डैक्लेरेशन देने के लिए ललित मोदी को उपस्थित रहने की जरूरत ही नहीं थी। फिर मदद किसलिए दी थी? सुषमा स्वराज अगर मदद देना भी चाहती थीं तो उन्हें अपनी सरकार से पूरी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए थी। पुर्तगाल सरकार से कूटनीतिक बात कर ललित मोदी की पत्नी का आप्रेशन कराना चाहिए था न कि पुर्तगाल जाने के लिए ललित मोदी की मदद करनी चाहिए थी?
एक ईमानदार और नैतिक विदेश मंत्री का कत्र्तव्य क्या अपने देश से भगौड़े व्यक्ति को वापस देश लाने और उसे कानून के हवाले करने का नहीं होना चाहिए? क्या यह कत्र्तव्य सुषमा स्वराज ने निभाया? उत्तर होगा-कदापि नहीं।
कमीशनखोरी हमारा राष्ट्रीय गौरव हमारी पहचान हमारा दायित्व !
कौन देशद्रोही महामूर्ख कहता है कि कमीशनखोरी गलत है  ?
कमीशनखोरी हमारा नैतिक ,पारिवारिक ,सामाजिक तथा सब से ऊपर उठ कर राष्ट्रीय कर्तव्य है. बिना कमीशन कोई भी कार्य करना केवल अपराध ही नहीं बल्कि घोर राष्ट्रद्रोह है. कमीशनखोरी समाज में समानता की भावना का विकास करती है.कमीशन जहाँ देने वाले व्यक्ति के आत्मविश्वास में वृधि करता है वहीं लेने वाले के बैंक बैलेंस को बढाता है. दोनों के बीच मधुर सम्बन्ध बन जाते हैं.कमीशन उनके बीच पद की दूरी को पाटने के लिये सेतु का काम करता है. कमीशन लेने के बाद उच्च अधिकारी भी अत्यंत विनम्र हो जाता है.कमीशन वह मोहिनी विधा है जिस से किसी भी अधिकारी को वश में किया जा सकता है.कमीशन एक ऐसा ब्रह्मास्त्र है जो कठिन से कठिन कार्य को सरल बनाता है.कमीशन का देश के विकास में सीधा सम्बन्ध है.विकास कार्यों को जैसे पंख लग जाते हैं.कमीशन वह संजीवनी है जो सर्वथा निकृष्ट [कचरा] उत्पाद को भी सर्वौत्क्रष्ट बनाने की खमता रखती है.
भगवन जी हमारे अपने हैं हमारे राज़दार हैं .हम उन से कुछ भी नहीं छुपाते हैं.हमारी उनसे विनम्र प्रार्थना है :-
# समस्त देश में कमीशनखोरी बनी रहे .
# सभी कर्मचारी प्रसन रहें .
# सरकारी कार्यालयों की रौनक बनी रहे .
# बाबूराज कायम रहे .
# कमीशन का निर्बाध आदानप्रदान होता रहे .
# कमीशन देने वालों और लेने वालों के बीच मित्रता और आत्मीयता बनी रहे.
ताथास्तु ताथास्तु  ताथास्तु !

Tuesday 16 June 2015

हिंदू धर्म में भिक्षावृति का यशगान !
# भिक्षावृति उन्मूलन कानून बने वर्षों हो चुके हैं, लेकिन पूरे भारत में प्रायः सर्वत्र बेरोकटोक भिक्षा मांगी जाती है और तथाकथित पुण्य अर्जन के लोभ में सर्वत्र श्रदापूर्वक दी जाती है. यह भिक्षा /भीख मांगने वाले तरह तरह के स्वांग /नौटंकी रचते हैं जिस से लोगों की करूणा, भावना को जागृत किया जा सके. 
हिंदू धर्म में भिक्षा को बहुत पवित्र कार्य कहा गया है. सम्पूर्ण जीवन में द्विजों (ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य) के लिए जो 16 संस्कार माने जाते हैं उन में से तीन संस्कारों -उपनयन, वानप्रस्थ और संन्यास -में तो भिक्षा मांगने की विधिवत शिक्षा दी जाती है. संक्षेप में, जीवन के पहले 25 वर्षों तक और फिर 50वें से मृत्युपर्यंत भीख मांग कर जीवन निर्वाह करने का धर्मशास्त्रों में विधान है. इन सब विधानों और आदेशों व कथाप्रसंगों ने भक्तों के खून में भिक्षा के प्रति एक विशिष्ट, उदार एवं उदात्त भाव भर दिया है-पुण्य और काल्पनिक दूसरी दुनिया /अगले जन्म में लाभान्वित होना. इसी मानसिकता के कारण आज पूरे देश में परजीवी निठल्लो की फौज खड़ी है भिक्षावृति उन्मूलन कानून की धज्जियां उडाते हुए. आज समय की मांग है कि धर्म और परलोक के चक्कर से निकल कर हम निठल्लों का पालन करना बंद करें और समाज पर बोझ बने अकर्मन्य, परजीवी व मुफ्तखोरों को खूनपसीने से रोटी कमाना के लिए विवश करें.
एक  परित्यक्ता  के मन की बात ;
हम आपके हैं कौन ?हमारी पात्रता क्या है ?
# उल्टा प्रदेश के लोकप्रिय मुख्य मंत्री फेंकू चंद की परित्यक्ता पत्नी शीघ्र उल्टा प्रदेश हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने जा रही है .माननीय मुख्य मंत्री के निजी आदेश पर जो सुरक्षा कवच उन्हें प्रदान किया गया है ,बताया जा रहा है कि श्रीमती जमुना देवी उस कवच के कारण काफी असुविधा और असमंजसपूर्ण हालात का सामना कर रही है .अपनी सादगी के लिये मशहूर श्रीमतीजी जहां लोकल बस में सफ़र करती है वहीं उसके सुरक्षा कर्मी बुलेट प्रूफ सरकारी वाहन का लाभ उठाते हैं.
उनके पति परमेश्वर का खासा दबदबा है जिस के कारण श्रीमती जमुना देवी हिम्मत नहीं जुटा पा रही है कि वह अपने दशकों पुराने पति से पूछे कि उसकी कानूनी हसियत क्या है ?इस प्रशन का उतर जानने के लिये उसने सारी ज़िन्दगी गुज़ार दी.सब्र की भी एक सीमा होती है.जमुना देवी के निकटतम सूत्रों से पता चला है कि वह शीघ्र पहचान के मौलिक अधिकार के अंतर्गत उल्टा प्रदेश हाई कोर्ट में याचिका  दायर कर रही है यह जानने के लिये कि उसकी पात्रता क्या है ?पत्नी या तलाकशुदा न होने के आधार पर वह फेंकू चंद जी से प्रशन करेगी -"आखिर हम आप के हैं कौन "?इसी बीच पता चला है कि अखिल भारतीय परित्यक्ता संघ ने श्रीमती जमुना देवी को अपना समर्थन देने की घोषणा कर दी है .

Monday 15 June 2015

परिवारवाद के  नवीनतम स्वरुप पर हंगामा क्यों ?
# लोग भी कमाल करते हैं .हर बात पर हंगामा .अरे भाई कौन सी कयामत आ गई ,आसमान टूट पड़ा जो सुषमा जी ने अपने पद का सदुपयोग करके ललित मोदी जी को सहारा दिया थोड़ी सी सहायता करदी .बेचारे निर्दोष ललित जी कई वर्षों से कष्ट भोग रहे थे ,क्या किसी का दुखनिवरण पाप है ?जिस देश में हजारों करोड़ रुपयों का स्कैंडल साधारण परम्परा है वहां केवल और केवल ७०० करोड़ के अपराधी के पीछे क्यों हाथ धो कर पडे हो ?हम ने माना कि सुषमा जी की बेटी बंसुरी स्वराज मोदी की कानूनी सलाहकार है तथा उनके पति का भी उनके साथ मधुर सम्बन्ध हैं ,लेकिन क्या मंत्री पद पर आसीन होकर परिवार के सदस्यों के हित की अनदेखी करना कोई संविधानिक दायित्व है ?क्या अपने समय में सोनिया जी के दामाद के हित की अनदेखी की गई ?कल तक यदि कांग्रेसजन परिवारवाद निभा रहे थे और वही परम्परा यदि आज भाजपाजन निभा रहे हैं तो गलत क्या है ?
अब कई लोग सुषमा जी की बहन वंदना शर्मा का नाम भी इसी सन्दर्भ में ले रहे हैं जो हरियाणा चुनाव में हार   जाने के कारण मंत्री पद से वंचित रह गई .उनका अपना कद है अपनी पर्सनालिटी  है -तभी उसके चुनाव लडने पर सुषमा जी ने स्पष्ट किया था -"शादी के पश्चात अब वह मेरी बहन से अधिक किसी परिवार की सदस्या है ".हरियाणा में पहली बार संघ परिवार की सरकार बनी है तो क्या उनका कर्तव्य नहीं कि अपने लोगों को जनता की सेवा करने का अवसर प्रदान करें .हरियाणा सरकार ने वंदना शर्मा को हरियाणा पब्लिक सर्विस कमीशन के सदस्य के रूप में संविधानिक पद पर आसीन किया है तो कौन सी अनहोनी घटना हो गई ?
आज कल फेंकने की परम्परा काफी लोकप्रिय हो गई है !




Tuesday 9 June 2015

NO MORAL DICTUM PLEASE !
According to media reports, Modi recently cautioned BJP members against spreading communal hatred, acknowledging that provocative comments made by some of his party colleagues were totally uncalled for and declaring that the constitutional guarantees of religious freedom and non-discrimination were non-negotiable. As a theoretical proposition, no one can disagree. This is consistent with the accepted wisdom, namely, “that in any country the faith and the confidence of the minorities in the impartial and even functioning of the State is the acid test of being a civilized State”. But how different the ground reality is! 
This principle was grossly breached by a Muslim minister of the Modi government when, justifying the ban on beef on TV, he felt bold enough to make an atrocious statement advising Muslims to go to Pakistan if they wished to eat beef. This should have resulted in the summary dismissal of the minister, but one has not even read a public rebuke of him by Modi. Not only that, the BJP seems to justify this policy on the excuse that since a large number of people (meaning Hindus) are against it, the ban is justified. This is a curious reasoning. Since there are at least 14 crore Muslims in India (a population exceeding almost every country of Europe), then why not ban pork and ham? The eating habits of people of various religions cannot be a matter of government policies unless, of course, the real purpose is to hit the economy of these communities who may be living by that business. 
MISSION PERSONALIZED !
Last week senior BJP leader and 'Margdarshak' Murli Manohar Joshi said the way the Ganga clean-up was going it might not happen in 50 years. That would have hurt the ruling party establishment, assuming it attaches any worth to a veteran leader already put to pasture in the course of Modi's rise to the top. Joshi specifically pointed to the need to maintain a minimum required flow of water in the river. That is a scientific fact recognised by the National Mission for Clean Ganga, established in 2011 under the UPA, which renewed Rajiv Gandhi's efforts by setting up the National Ganga River Basin Authority in 2009; the authority also did not produce any substantive results. Why there is high hope that the NDA would succeed where others have failed? Because Prime Minister Narendra Modi in Varanasi promised to do that after a prayer on the banks of the river, making it look like a personal mission.
 
A prime ministerial commitment can indeed invest a project with additional momentum. However, in the past one year the only thing new achieved is the transfer of the project from the Environment Ministry to Uma Bharti's Water Resources Ministry.
अंधविश्वास, पुनर्जन्म और कर्मफल के सिध्दांत से मुक्ति पाने के लिए ज़रूरी है कि तर्क और विमर्श के पुराने पैराडाइम को बदलें। पुराने पैराडाइम से जुड़े होने के कारण हम प्रभावी ढंग से अंधविश्वास का विरोध नहीं कर पा रहे हैं। तर्क के पैराडाइम को बदलते ही हम विकल्प की दिशा में बढ़ जाएंगे। पैराडाइम को बदलते ही विचारों में मूलगामी परिवर्तन आने लगेगा। आम तौर पर हमारे बहुत से बुध्दिजीवी पुराने पैराडाइम को बनाए रखकर तर्कों में परिवर्तन कर लेते हैं। ध्यान रहे, अंधविश्वास को तर्क और विवेक से अपदस्थ नहीं किया जा सकता। जब तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर नया पैराडाइम निर्मित नहीं किया जाता तब तक अंधविश्वास को अपदस्थ करना मुश्किल है। अंधविश्वास का जबाव तर्क नहीं विज्ञान है। जो लोक तर्क में विश्वास करते हैं वे पैराडाइम बदलते ही असली शक्ल में सामने आ जाते हैं। ध्यान रहे, जब पैराडाइम बदलते हैं तो उसके साथ ही, सारी दुनिया भी बदल जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि पैराडाइम बदलते ही हमारा विश्व दृष्टिकोण बदल जाता है, नए का जन्म होता है, वैज्ञानिक चेतना के विकास की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। यही वह बिंदु है जिस पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है। अंधविश्वास का जबाव तर्क से देंगे तो अंतत: पराजय हाथ लगेगी यदि पैराडाइम बदलकर विज्ञानसम्मत चेतना से इसका जबाव देंगे तो अंधविश्वास को अपदस्थ कर पाएंगे। हमारे रैनेसां के चिंतकों ने अंधविश्वास का प्रत्युत्तार तर्क से देने की चेष्टा की और इसका अंतत: परिणाम यह निकला कि हम आज अंधविश्वास से संघर्ष में बहुत पीछे चले गए हैं। तर्क को आज अंधविश्वास ने आत्मसात कर लिया है। अंधविश्वास का तर्क से बैर नहीं है उसकी लड़ाई तो विज्ञानसम्मत चेतना के साथ है।
अंधविश्वास के कारण बौध्दिक अधकचरापन पैदा होता है। इन दिनों विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना के बजाय मिथकीय चेतना पर ज़ोर दिया जा रहा है।

Sunday 7 June 2015

 
सैलिब्रिटी बनाम धोखा !
ये जो सैलिब्रिटी स्टेट्स के लोग  हैं वे किसी भी उत्पादन का प्रचार करने के लिए क्या देखते हैं। इनका सबसे पहला सवाल होता है कि एनडोर्समैंट का पैसा कितना मिलेगा और जब यह तय हो जाता है तो फिर उनसे जो चाहे कहलवा लीजिए और करवा लीजिए।
 
पैसे का मोह इतना जबरदस्त होता है कि शराब, तम्बाकू, गुटखा और सेहत के लिए हानिकारक अन्य वस्तुओं का प्रचार ये लोग इस तरह करते हैं मानो वह प्रोडक्ट गुणों की खान हो।
 
क्या इन लोगों का कत्र्तव्य नहीं है कि उत्पादक कम्पनी से कहें कि वह उन्हें उस वस्तु के उत्पादन के दौरान इस्तेमाल में आने वाली उन सब चीजों की शुद्धता के बारे में भरोसा दिलाए कि किसी भारतीय कानून का न तो उल्लंघन हुआ है, न ही मिलावट की गई है और न ही उसमें कोई हानिकारक तत्व है जिससे सेहत को खतरा हो सकता हो। 
CLAPTRAP OF VEDA'S !
Blind faith for the Veda's has led gullible followers to consider all the four related scriptures as perfect par excellent divine unquestionable source of knowledge and wisdom and they even trace their authorship to supposed gods.
Devoid of varied forms of meaningful and purposeful scientific knowledge, Veda's in original are only anthologies prepared by the tribal Aryans under then prevailing subjective and objective conditions and the pieces of information recorded in them are no way comparable to the present day scientific progress and data.
उमा भारती के अनमोल प्रवचन !
मोदीजी मसीहा हैं ,उनके पास सभी समस्याओं का समाधान !
"मोदीजी ही वह मसीहा हैं जिनका इंतिजार हजारों वर्षों से हो रहा था और जिन के पास हर समस्या का समाधान है.पिछले २९ वर्षों में गंगा की सफाई पर ५००० रुपया खर्च किया गया.अब यदि में भूतपर्व प्रधान मंत्री से प्रशन पूछों तो उनका जवाब होगा 'मैनों की पता '.यही प्रशन यदि मोदीजी से पूछा जाये तो उनका उतर होगा 'मैनों सब पता है '.उनके पास हर प्रशन का उतर है और देश की समस्त समस्याओं का समाधान ".
यह परम संतोष का विषय है भारत तो क्या समस्त विशव के कल्याण हेतु भारत की पुण्य धरती पर आख़िरकार मसीहा प्रकट हो ही गया ! देश वासियों को बधाई !

Friday 5 June 2015

MAGGI CONTROVERSY :TIP OF THE ICEBERG;
These days Maggi nodules are in news though for bad reasons. Well ,it is never late to learn but apparently enlightened Indians have discovered too much Mono-Sodium Glutamate [just around 70%] and lead content of extraordinarily popular snack,that too after popular use for more than three decades. What about other much publicized domestic items in general and fast foods in particular ,which are wrongly advertised in print and electronic media in gross violation to various clauses of magical remedies and objectionable advertisement act ? The credibility of fast foods and soft drinks has been always questionable and subject matter of scientific discourse.Why selective targeting of Maggi nodules alone ?
Now on the lighter side of Pandora's box !The next guy to cut his chin with a Gillette razor may give chase to Rahul Dravid.Then there could be frustrated mums whose little darlings aren't growing into champs despite all the Bournvita being shoveled into them as per Kajol's advice. What if someone fails to gain speed and strength despite what Mr Dabangg himself promises in the Revital commercial ?What if Hanuman chalisa yantra or Laxmi yantra fails in totality to achieve desired results ?And what about the political campaigns promising health         ,wealth and moon ?During last year's Lok Sabha campaign NaMo promised to retrieve all the black money slashed abroad that too within 100 days and deposit Rs 15 Lakh into every Indians bank account. Now,we are told that it was just a jumla. I strongly believe that Amitabh ,Madhuri and Preity-once prosecuted for misleading advertisement ,too can plead jumla as well.
VIEW POINT;
HEALTH SECTOR :NOT IN GOOD HEALTH !
The BJP's election manifesto had promised to reduce the out-of-pocket spending on health care with the help of state governments. In addition, the focus on key determinants of health — sanitation and potable water — created an impression of sincerity. A report published in an international medical journal, The Lancet, coinciding with the NDA government's one year in power, however, has a different story to tell. Trouble began in January 2015, when the government unveiled its New Health Policy (NHP), which did not commit to any increase in public spending on health. India spends grossly 1.2 per cent of its GDP on health. 
The annual budget for 2015-16 reinforced the government's new thinking. It slashed the Central Government's health spending by 15 per cent over last year. The justification given was that a greater devolution of tax revenues to states, as recommended by the Fourteenth Finance Commission, should enable states spend more on health. Since the primary and secondary health care system is funded by states, this shift in policy rings trouble for the states with the poorest health indicators. Even if it is assumed that they would earn more in terms of revenue, the poorer states tend to spend on development works rather than public health. This trend cannot reverse in the absence of explicit directions from the Central Government, which so far has not exhibited sufficient concern on this count. 
The National Health Mission, under which the Central Government provides funds to the states for reproductive, maternal, newborn, child, and adolescent health programmes, also received almost a quarter less money for 2015-16 than last year. With the out-of-pocket spending on health, even by poorer Indians, being among the highest in the world and nearly 3.1 million households slipping to levels below the poverty line due to the rising health care expenditure, the deterioration of health indicators is a cause for worry. The government, over-focussed, as it appears, on development, should also worry about the health of its citizens. 

Monday 1 June 2015

NARCISSIST,INSENSITIVE AND SADIST "GOD" !
The attributions -omnipotent,omnipresent,omniscient and above all benevolent,for much publicized "god" have been questionable since time immemorial.The concept of 'god' and its associated religiosity ,has caused more misery to all of mankind in every stage of human history than any other single hypothesis.And the repugnant process is on today even in 21st century.
It is beyond any comprehension that why 'almighty god' has failed to prevent reprehensible bloodbath in Iraq,Syria,Nigeria,Pakistan,Somalia,Kenya,Saudi Arabia,Oman etc etc.It will be very pertinent to point out that people tortured to death are theists and not atheists.