Friday 15 May 2015

द्रोणाचार्य अवार्ड का कड़वा यथार्थ !
# दोगले लोगों से भरा पड़ा है हमारा इतिहास,जिन में द्रोणाचार्य का नाम सब से ऊपर है.न उस का जन्म गौरवशाली था,न ही उस का कोई आदर्श था,न नैतिकता.वह शिष्यों में भी घृणित भेदभाव करता था जिस का दुष्परिणाम भुगता एकलव्य ने.
आज के युग में द्रोणाचार्य का नाम तब सुनने को मिलता है जब राष्ट्रीय स्तर पर किसी को बेहतरीन कोच का अवार्ड़ दिया जाता है जो द्रोणाचार्य अवार्ड़ कहलाता है. यह क्रम आज भी जारी है.
भारत के इतिहास में पहली बार ,५ जनवरी २०११ को सर्वोच्च न्यायालय ने द्रोणाचार्य के बारे में अपने फैसले में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि गुरू द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य का अंगूठा कटवाना एक शर्मनाक ,दारूण और कुत्सित करतूत है. द्रोणाचार्य ने कभी भी एकलव्य को शिक्षा नहीं दी थी - फिर उसे फीस (गुरू दक्षिणा) मांगने का क्या अधिकार था? न्यायमूर्ति काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञानसुधा मिश्र ने अपने निर्णय में यह प्रशन उठाया था.
यह देश के इतिहास में पहली बार हुआ है कि सर्वोउच्च न्यायालय ने पिछड़े आदिवासी एकलव्य के प्रति हुए घोर अन्याय को स्वीकार करते हुए गुरू द्रोणाचार्य और उस की नैतिकता को कठघरे में ला खड़ा किया है.
ऐसी पृष्टभूमि में द्रोणाचार्य अवार्ड की सार्थकता तथा औचत्य क्या है ?

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