Wednesday 13 May 2015

एक आत्मा की आत्मकथा एवं त्रासदी !
# मुझे उपनिषदकारों ने गहरी दुविधा में ड़ाल रखा है.अजीब विरोधाभास है- मुझे अंगूठे,बाल के अगले भाग के सौवें भाग का सौवां हिस्सा,चावल जौ सरसों के दाने से छोटा और अणु के बराबर परिभाषित किया गया है. मैं ऐसे अंतरविरोध में अपने को क्या समझूं ?
मैं घोर नरक में जाना चाहता हूं तो यह ज़रूरी है कि शास्त्रों के अनुसार मुझे कोई जघन्य पाप करना होगा.किसी की हत्या या बलात्कार की उपेक्षा मंदिर में जाकर किसी देवी देवता का अपमान चूंकि पंड़ितों के अनुसार घोर पाप है अतः मेरा नरक में जाना तय है.
मेरा दाह संस्कार होगा. मेरे शरीर के समस्त भाग जलकर राख हो जायेंगे और उस राख को भी किसी नदी में प्रवाहित किया जायेगा.
रह गया मैं (आत्मा) .यमदूत मुझे नरक ले चलेंगे.नरक में आग जल रही है और कड़ाहे चढे हुए हैं जिन में तेल खौल रहा है. उसी तैल में मेरी आत्मा को तल कर पकौड़ा बनाया जायेगा और माननीय यमराज उससे नाशता करेंगे परन्तु मुझे क्या फर्क पड़ेगा ?कृष्ण जी कहते हैं कि आत्मा को न दुख होता है न सुख,न काटा जा सकता है और न ही जलाया जा सकता है. मैं तो निर्लिप्त अजरअमर हूं. हां जो शरीर दुख सुख के लिए संवेदनशील था वह तो पहले ही राख बन चुका है ,आत्मा का क्या है कड़ाही में तलिए या आग में जलाइए -उसे क्या फर्क पड़ता है?
मैं तो सोचता हूं कि बेचारे यमदूत और उन की टीम नाहक ही अपना समय बरबाद कर रहे हैं.मेरी आत्मा तो जघन्य अपराध करके भी चैन से बैठी है.मेरी त्रासदी देखें मैं हंस भी नहीं सकता क्योंकि हंसने के लिए शरीर चाहिए जो पहले ही मिट गया है.
स्वर्ग की बात करते हैं जहां आनंद ही आनंद है. यदि मैं पुहंच भी पाओं तो वह आनंद भी कौन महसूस करेगा.आनंद महसूस करने वाला शरीर तो धरती पर ही छूट गया.उर्वशी और मेनका ने पूरे कपड़े पहने हैं या फिल्म अभिनेत्री की तरह आधे कपड़े पहने हैं -वह क्या और उन का नृत्य क्या ?हां धरती पर यह नृत्य देखने को मिलता तो आनंद कुछ और ही होता.कितना विवश हूं मैं और मेरी विवशता पर दो आंसू बहाने वाला भी कोई नहीं. आह इतनी बड़ी सृष्टि पर कितना अकेला हूं मैं ?

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