Friday 28 August 2015

धार्मिक बाजारीकरण !
यदि आम आदमी राधे मां जैसे लोगों के प्रति आकर्षित होता है तो इसका कारण है कि मजहब को बहुत बड़े पैमाने के हाईटैक उद्यम का रूप दे दिया गया है। गत कुछ दशकों दौरान देश भर में ‘थीम पार्कों’ के रूप में कई नए मजहबी स्थल अस्तित्व में आ गए हैं और महंगे बाजारों और ज्वैलरी स्टोरों पर देवी-देवताओं की छोटी-बड़ी मूर्तियों की भरमार है। यहां तक कि फास्टफूड रैस्टोरैंट भी विभिन्न धार्मिक उत्सवों पर रैडीमेड भोजन उपलब्ध करवाते हैं और जन्माष्टमी उत्सव दौरान प्रसाद के रूप में ‘बर्थडे केक’ बांटा जाता है।
 
अतीत अभी भी हमारे अंग-संग है-हमारी वर्तमान दुनिया में दनदनाता है और धड़ल्ले से हस्तक्षेप करता है। इसका एक कारण यह है कि इसको ऐसे ‘कैप्सूल’ का रूप दे दिया है जो हमारे वर्तमान में पूरी तरह फिट होता है और हमारी आशाओं और अभिलाषाओं की दुनिया का अटूट अंग बन गया है। 
 
हम इस प्रक्रिया में हंसी-खुशी शामिल हुए हैं क्योंकि इस मेले में बाजारवाद और अध्यात्मवाद एकजुट हैं। हम धार्मिक ‘थीम पार्कों’ और धार्मिक टी.वी. सीरियल को तो प्यार करते हैं लेकिन उस व्यक्ति से आहत हो जाते हैं जो आध्यात्मिकता और बाजारवाद के रिश्ते को इसकी तार्किक परिणति तक विकसित करने का प्रयास करता है।
 
आखिर राधे मां ऐसा कौन-सा काम कर रही है जो हमारे पहले से धार्मिक जीवन का अंग नहीं है? उसके बारे में लोगों को वास्तव में इस बात से कोई परेशानी नहीं कि वह दौलत का फूहड़ प्रदर्शन करती है या बॉलीवुड जैसा व्यवहार करती है। हम ‘भगवान के अवतारों’ के ऐसे प्रपंच से पहले ही परिचित हैं और वास्तव में उनके इस रूप को आकर्षक मानते हैं क्योंकि इसमें हमारी अभिलाषाओं की झलक मौजूद है।

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