Saturday 21 May 2016

बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर:-
पालि त्रिपिटक का यदि अवलोकन करें तो हम बुद्ध को यह कहते हुए पाते हैं -एहि पस्सिक अर्थात आओ मेरे विचार मेरी अभिव्यक्ति की पहले जांच परख कर लो. 
'तत्वसंग्रहपंजिका' में बुद्धिवादियों के आदिगुरू बुद्ध के एक श्लोक में कहा गया है :-
तापाच्छेदाच्च निकषात्सुवर्णमिव पंडिता इह, 
परीक्ष्य भिक्षव ग्राह्यं मद् वचो न तु गौरवात्. 
अर्थात जैसे सोने को तपाकर, काट कर और कसौटी पर रगड़ कर उस की परिक्षा की जाती है, उस के शुद्ध अथवा मिलावटी होने का निर्णय किया जाता है, उसी प्रकार हे पंडितो, भिक्षुओ, मेरे वचनों को भलीभान्ति जांचपरख कर स्वीकार करो, उन्हें मेरे प्रति सम्मान के कारण मत स्वीकार करो.
अपने समय के महान बुद्धिवादि जिन्हेंने ब्राह्मणवादी कर्मकांड और पाखंड को चुनौती दी, तर्क के आधार पर अपनी प्रगतिशीलता को जन आन्दोलन का रूप दिया, एक नई जागृति के प्रेरणा स्त्रोत बने, उसी महान व्यक्तित्व को उसी के अनुयायिओं ने ब्राह्मणवादी षड़यंत्र को सफल बनाते हुए भगवान का रूप दे डाला. आज बुद्ध के मंदिर हैं जहां उसे पूजा जाता है. उन के प्रगतिशील विचार, उन का व्यक्तित्व जैसे कहीं अंधेरे में खो गया है और वह अनुकरणीय न होकर केवल पूज्यनीय रह गये हैं. यह ठीक है कि उन के अनुयायी हिंदू पाखंड का विरोध करते हैं परन्तु उस के विरोध में एक क्रांतिकारी विचारधारा नहीं, एक और धर्म ने जन्म लिया है. कितनी बड़ी त्रासदी कितना बड़ा विरोधाभास है ???
ओशो ने अपनी पुस्तक -The Goose is out, पृष्ठ 145 मे लिखा है-"बुद्ध के एक मंदिर का नाम रखा गया है -The temple of ten thousand Buddha's, जिसे एक पूरे पहाड़ में बनाया गया है. यदि आज वह जीवित होते तो अपने ही अनुयायिओं के कारण अपनी विचारात्मक दुर्दशा देख कर आत्महत्या कर लेते.

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