Saturday 14 May 2016

अमित शाह देश के धाँसू नेताओं में से एक हैं। वो वाल्मीकि घाट की जगह किसी गटर में जाते और देखते कि वाल्मीकि समाज के लोग किन मजबूरियों के चलते कैसी परिस्थितियों में काम करते हैं तो मैं उनकी प्रशंसा करता। मेरी समझ नहीं आता दलित साधु-सन्तों के साथ कुंभ में डुबकी लगाकर उसी वंचित समाज की परेशानियाँ कैसे हल हो जाएंगी? अगर मैं ये मान भी लूँ कि अमित शाह की भावना राजनीति से ज़्यादा दलित कल्याण से प्रेरित थी, तो भी क्षिप्रा नदी में डुबकी मार-मार कर वो वाल्मीकियों को गटर में से कैसे उबारेंगे? क्या डुबकी लगाने भर से उनका उद्धार हो गया? अब अगला कुंभ तो सालों बाद आएगा। तब तक वाल्मीकि समाज आपकी अगली डुबकी का इंतज़ार नदी में करें या गटर में?
ये काम कर रहे किसी दलित-पिछड़े वर्ग (सॉरी मैं सवर्ण नहीं लिख सकता) के किसी व्यक्ति से पूछिए, यक़ीन मानिए जवाब गटर ही होगा। क्योंकि ये काम कर रहे लोगों की, ख़ासतौर पर वाल्मीकियों की समस्या गटर है, कोई नदी-घाट नहीं। नदियाँ साफ़ करने के कथित प्रयास करने के दावे तो किया जा रहे हैं, गटर में काम करने वालों को तो सांत्वना भी नहीं मिलती जो जाने कितने लंबे वक़्त से सबसे निचले दर्जे का काम करते हुए सामाजिक भेदभाव का ज़ख़्म सह रहे हैं।

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