Sunday 19 July 2015

प्रगतिवाद या अतीतवाद !
21वीं शताब्दी की सब से बड़ी सामाजिक त्रासदी है कि आज भी अधिकांश धार्मिक आस्थावान यह मानते हैं कि उन के अपने अपने धार्मिक ग्रन्थ ईश्वरीय रचना है, जो हज़ारों वर्ष पहले लिखे गए हैं जो हर समस्या हर विषय पर अन्तिम शब्द है और आज भी पूर्णरूपेण प्रासंगिक हैं. वह लोग अपनी नाक से 6" अधिक दायें बायें या आगे देखने को तैयार नहीं है. आगे की गली बन्द है. क्या यह सोच यह चिंतन मानवीय बुद्धि, रचनात्मकता और सृजनशीलता का अपमान नहीं है? कमाल का विरोधाभास देखिए कि यही लोग 20-21वीं शताब्दी के समस्त अविष्कारों के मज़े भी लूट रहे हैं और दूसरी तरफ व्यवहार और चिंतन में निरर्थक और अप्रासंगिक धार्मिक पोथियों की शान में चिल्ला चिल्ला कर कसीदे भी पढते हैं वह भी डंके की चोट पर !

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