Wednesday 16 August 2017

आज हमें और हमारे देश को आजाद हुए 70 साल हो गए हैं। सभी आजादी की खुशियां मनाते हैं, सिवाय हम सबकी गंदगी साफ करने वाले हमारे भाई-बहन कर्मचारियों के। इनकी हालत तो आजादी से पहले भी ऐसी ही थी और आजादी के बाद भी वैसी ही है। इनके पास किसानों की तरह न तो जमीनें हैं और न ही अपने घर। 

कर्ज तले दबे इन सफाई कर्मचारियों का तो कर्ज माफ करने का भी कोई प्रावधान तय नहीं किया गया। क्या सरकारों की बेरुखी ऐसे समाज के साथ ही रहेगी जो हमारी गंदगी साफ करते हैं? कब सरकारों की इस समुदाय के लिए इच्छाशक्ति जागेगी? कब इन पर हो रहे अत्याचार बंद होंगे?  कब ये लोग आजाद देश में आजादी की जिंदगी जी सकेंगे? मैं रोज सुबह आंख खुलते ही जब समाचार पत्र पढ़ता हूं तो कहीं न कहीं शर्मसार करने वाली छपी खबर सामने आ जाती है। कभी पंजाब में, कभी दिल्ली में, कभी इधर तो कभी उधर। खबर एक जैसी ही होती है ‘सीवरेज में गंदगी साफ करने उतरे सफाई कर्मियों की जहरीली गैसों से दम घुटकर मौत।’ सिर्फ मरने वालों की संख्या ही अलग-अलग होती है। 

केन्द्र सरकार का सबसे बड़ा अभियान स्वच्छता का है। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि सीवरेज की सफाई करते वक्त देश भर से आने वाली सफाई कर्मियों की मौतों को लेकर कोई हलचल नहीं है। आजकल हम सैनीटेशन का मतलब सिर्फ शौचालय ही समझते हैं। मगर,इसका बड़ा हिस्सा है शहरों की सफाई और सीवरेज का ट्रीटमैंट करना। स्वच्छता के ज्यादातर विज्ञापन शौचालय को लेकर ही बने हैं, कचरा फैंकने को लेकर बने हैं, मगर सफाई कर्मियों की सुरक्षा, उनके लिए जरूरी उपकरणों का जिक्र कहीं नजर नहीं आता। ऐसा क्यों कर रही हैं सरकारें? क्यों नजरअंदाज हो रहे हैं गरीब दलित लोग जो एक समय की रोटी के लिए उस गंदगी में उतर जाते हैं जहां बीमारी तो तय ही है लेकिन मौत कब दस्तक दे दे, किसी को पता नहीं। 

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