Tuesday 1 August 2017

नेहरू संघ परिवार की नज़र में अवांछित क्योंकर ???
यह जग ज़ाहिर है कि संघ परिवार की भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के प्रति विचारात्मक विद्वेष के कारण महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द के प्रथम भाषण में नेहरू का नाम तक नहीं आया।यह महत्वपूर्ण नहीं है कि भाषण छद्म लेखक ने लिखा था या राष्ट्रपति की अपनी रचना थी ।प्रासंगिक यह है कि ऐसा जानबूझ कर किया गया इतिहास को भगवाकरन करने के उद्देश्य से।मैं मानता हूँ कि नेहरू कई विरोधाभासों तथा अंतर्विरोधों के कारण प्रगतिशीलता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं परन्तु संघ परिवार की संकीर्ण सम्प्रदायिक ब्राह्मणवादी सोच की तुलना में वह अवश्य प्रगतिशील की श्रेणी में आते हैं ।संघ परिवार हिन्दू राष्ट्र का पक्षधर रहा है परन्तु नेहरू धर्म निरपेक्ष प्रजातंत्र के पक्षधर थे। संघ परिवार प्राचीन कपोल कल्पित संस्कारी विज्ञान तथा हिन्दू धार्मिक ग्रंथों की प्रासंगिकता एवं प्रामाणिकता (कर्मकांडी पाखंड) के पक्षधर रहे हैं जबकि नेहरू मानवतावादी तर्कपूर्ण वैज्ञानिक व्यवहार और चिंतन के पक्षधर थे।नेहरू की पहल पर ही संविधान में 56A (h) का समावेश किया गया जिस के अंतर्गत मानवतावादी तर्कपूर्ण वैज्ञानिक सोच को नागरिकों के मूल कर्तव्य में परिभाषित किया गया। इतिहास गवाह है जब हिन्दू पर्सनल कानून में सार्थक सुधार की दिशा में तथा नारी के सामाजिक उत्थान के उद्देश्य से जब अम्बेडकर ने हिन्दू कोड बिल प्रस्तुत किया तो संघ परिवार ने उस बिल को हिन्दू कोढ (leprosy) बिल की संज्ञा देकर डट कर विरोध किया क्योंकि यह कानून मनुवादी व्यवहार और चिंतन को काफी हद तक निरस्त करता है ।त्रासदी देखिए आज 21वीं शताब्दी में भी संघ परिवार भारतीय संविधान की तुलना में ब्राह्मण वर्चस्ववादी शोषणकारी मनुवादी व्यवहार और चिंतन को प्राथमिकता देता है ।

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