Friday 22 April 2016

तृप्ति देसाई के नेतृत्व में मंदिर प्रवेश का लोलीपोप !
मंदिर या मस्जिद (या दरगाह) में प्रवेश मिलने के बाद क्या होगा? वहाँ जाकर वे क्या करेंगी? पूजा करेंगी, नमाज़ पढ़ेंगी! ये काम तो वे हज़ारों सालों से करती आ रही हैं। कहीं मंदिर के अंदर, कहीं बाहर। जहाँ भी उनके प्रवेश पर प्रतिबंध है, वहाँ प्रवेश मिलने के बाद भी यही काम होगा। तो ऐसा आंदोलन किस काम का जो हमें संघर्ष की परिधि में घुमाकर वापस उसी बिंदू पर लाकर खड़ा कर दे, जहाँ से चलने का मक़सद आगे जाना था। तृप्ति देसाई महिलाओं को विरोध करना सिखा रही हैं, जागरूक होना नहीं। अब महिलाएँ भगवान की पूजा करेंगी और…और आगे कुछ नहीं। क्योंकि भक्ति से भगवान ही मिलते हैं, और उनके आगे, कुछ नहीं!
लेकिन हमें इसके लिए मंदिर की आवश्यकता क्यों हो। होना तो ये चाहिए था कि तृप्ति देसाई किसी मंदिर-दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर लगे सदियों पुराने प्रतिबंधों की जगह मंदिर-मस्जिदों के ही ख़िलाफ़ आंदोलन करतीं। महिलाओं को एक कर ये ऐलान कर देतीं, कि जिस धार्मिक स्थल में उनका प्रवेश वर्जित है, वे उस धार्मिक स्थल का ही बहिष्कार करती हैं। अगर मंदिर को हमारी ज़रूरत नहीं, तो हमें भी उसकी कोई ज़रूरत नहीं। 21वीं सदी में 18वीं सदी का आंदोलन नहीं चलेगा! हमें जश्न और मातम में फ़र्क़ करना आना चाहिए।

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