Sunday 30 July 2017

वंदेमातरम् पर ज़ोर ज़बरदस्ती क्यों  ?
एक  असाधारण घटनाक्रम के परिवेश में मद्रास हाई कोर्ट का आश्चर्यजनक निर्देश सामने आया है कि पूरे राज्य के शिक्षा संस्थानों तथा निजी एवं सरकारी कार्यालयों में वंदेमातरम् का गायन अनिवार्य होना चाहिए .एक भारतीय के नाते में कई बार वंदेमातरम् गुनगुनाता हूँ और कई समारोहों में सामूहिक रूप से भी गाया है लेकिन मैं  नहीं समझता हूँ कि अपने आप को देशभक्त प्रमाणित करने के लिए मुझे या किसी अन्य नागरिक को कोर्ट का निर्देश ज़रूरी है. वंदेमातरम् गाना या न गाना हर नागरिक की भीतरी संवेदना है जो समय समय पर भिन्न भिन्न कारणों पर निर्भर है . देशभक्त होने का एकमात्र मापदंड वंदेमातरम् क्यों ?न्यायिक सक्रियता [Judicial activism] के विरोधाभास के प्रतीक के रूप में पहले भी एक हास्यप्रद निर्णय /निर्देश है कि सिनेमा हॉल में फिल्म देखने पर राष्ट्र गान के समय खड़ा होना अनिवार्य है .क्या मूलभूत संविधानिक अधिकारों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत  गाना या न गाना शामिल नहीं है ?क्या यह निर्देश बीमार अथवा शारीरिक /मानसिक विकलांग नागरिकों पर भी ज़बरदस्ती लागू किया जाएगा ? मैं मानता हूँ कि सुप्रीमकोर्ट को इस निर्देश को संज्ञान में लेकर निरस्त करना चाहिये.
वंदेमातरम् गाना बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास "आनंदमठ " से लिया गया है जो कथानक के अनुसार हिन्दू विद्रोही मुस्लिम शासकों के विरुद्ध गाते हैं . आज़ादी के पश्चात् वंदेमातरम् को राष्ट्रिय गान के रूप में मान्यता देने का प्रस्ताव ज़रूर आया था लेकिन संविधानिक सभा ने इस गान की सम्प्रदायिक पृष्टभूमि के कारण इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया . क्या संविधानिक सभा के माननीय सदस्य जिन में नेहरु ,पटेल तथा आंबेडकर जैसे स्वतंत्रता सेनानी शामिल हैं  देशभक्त न थे जिन्होंने वंदेमातरम् के स्थान पर जनगणमन गान को राष्टगान के रूप में  प्राथमिकता दी ?

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