Monday 5 October 2015

श्राद्ध पखवाड़े के अवसर पर, 
चार्वाक दर्शन का तर्कसंगत दृष्टिकोण !
# न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः, 
नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः. 
अर्थात न कोई स्वर्ग है न कोई मोक्ष है और न ही कोई परलोक में जाने वाली आत्मा ही है. न ब्राह्मण आदि चार वर्ण वाली मानसिकता और ब्रह्मचर्य गृहस्थ आदि आश्रम के धर्मों का पालन का किसी परलोक से कोई फल मिलता है. 
* यहाँ चार्वाकों ने घृणित जातिवाद को खुली चुनौती दी है.
# पशुश्चेन्निहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति,
स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हन्यते?
अर्थात धर्मशास्त्रों में कही गई यज्ञविधियों के अनुसार यज्ञ में मारा गया पशु यदि स्वर्ग को जाता है तो यज्ञ करने वाला व्यक्ति अपने बाप को ही यज्ञ में मारकर उसे अनायास स्वर्ग में क्यों नहीं पहुंचा देता ?
# मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्,
गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पाथेयकल्पणम्.
अर्थात घर पर किए श्राद्ध से यदि परलोक के यात्री को एवं स्वर्गलोक के पथिक को तृप्ति व संतुष्टि होती है, फिर तो घर से निकले व्यक्ति को रास्ते के लिए भोजन आदि की व्यवस्था करना व्यर्थ है. घर वाले बस उस के निमित्त श्राद्ध कर दिया करें, वह तृप्त हो जाया करेगा.
# स्वर्गस्थिता यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः
प्रासादस्योपरिस्थानमात्र कस्मान्न दीयते?
अर्थात यदि इस लोक में दिए गये दान से इतनी दूर स्थित कथित स्वर्ग के वासी प्राणी की तृप्ति हो जाती है तो मकान के ऊपर वाली मंजिल में बैठे व्यक्ति की नीचे बैठे व्यक्ति के भोजन करने से तृप्ति क्यों नहीं होती? यदि दान देने से दूरस्थ, स्वर्गस्थित व्यक्ति की तृप्ति वास्तव में होती है तब तो इतना निकट बैठे व्यक्ति की तृप्ति निर्बाध हो जानी चाहिए. स्वर्ग की दूरी के मुकाबले एक दो मंजिल की दूरी क्या होती है???
( माधवाचार्य 1295-1385,सर्वदर्शनसंग्रह).

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