Wednesday 21 February 2018

न्याय प्रणाली व्यवहार और चिंतन में  !
यह दुर्भाग्य है की हमारी न्याय प्रणाली न तो जनता की आकांक्षाओं पर न प्रगति के लिए सहायक सिद्ध हो पा रही है । आधार कार्ड जैसे मुद्दे पर अपनी पोंगापंथी वाले निर्णय या अमीरो को राहत पहुंचाने वाली सोच, तीसो साल घिसटने वाले मुकदमे या अपनी अहंकारी छवि कोई भी जनता को प्रभावित नहीं कर पा रहें हैं । ऐसा लगता है की सारी न्याय व्यवस्था सिर्फ रसूख वाले लोगो को राहत देने में जुटी हुई है । गरीब बिचारा सालो साल बिना पेशी के जेल में बंद रह जाता है तो नेता अभिनेता और करोडों का घोटाला करने वाले और यहाँ तक की मनुष्यों को अपनी लम्बी लम्बी गाडियों से रौंदने वालो को तुरंत अग्रिम जमानत मिल जाती है । किसी अपराधी के लिए तो रात के 12 बजे के बाद भी उच्चतम न्यायालय के दरवाज़े खुल जाते है और कहा सैकड़ों निरपराध सालो जेल में सड़ते रहते है और अदालतों के पास उनके लिए वक़्त नहीं होता। संसार की सबसे मोटी संविधान की किताब होने के बाद भी न्याय मिलना जनता के लिए उतना ही दुर्लभ है। हमें बहुत ही संजीदगी के साथ सोचना होगा की क्या इस मौजूदा व्यवस्था का आमूल-चूल परिवर्तन ज़रूरी हो गया है ? क्या जजों की जनता के प्रति जवाबदेही जरूरी नहीं होनी चाहिए। लंबित मुक़दमों की बढ़ती हुई तादाद की जिम्मेदारी किसको लेना चाहिए ?

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