Thursday, 28 July 2016

दाल को दाल ही रहने दो  !
पुराने जमाने में मुर्गे का बड़ा महत्व हुआ करता था. किसी ऊंचे टीले पर चढ़कर रात भर वह सूरज के निकलने की टोह लिया करता था. जैसे ही उसे आभास होता कि बस अब उजाला होने को है, वह तुरंत जोरदार बांग लगा देता ताकि सब जाग जाएँ. जो चौकीदार के ‘जागते रहो’ की चेतावनी के कारण जागे हुए ही होते थे वे भी नीम का दातून लिए दिशा मैदान की ओर कूच कर जाया करते थे. चोर आदि भी अपना चौर्यकर्म निपटाकर अपने-अपने घर चले जाया करते थे. वे भी गरीब आदमी की तरह सुबह दाल-रोटी खाते और दिन भर के लिए चादर तान कर सो जाते ताकि अगली रात को फिर काम पर निकला जा सके. अब यह आप पूछ सकते हैं कि चोर जैसे लोग भी दाल रोटी ही क्यों खाते थे उन दिनों, वे चाहते तो अपने नियमित चौर्य कर्म के अंतर्गत मुर्गी का इंतजाम तो बड़ी आसानी से कर सकते थे. सच तो यह है कि उन दिनों गरीब आदमी के भी कुछ उसूल होते थे. पेट की खातिर वह चोरी जरूर करता था लेकिन ‘मुर्गी चोर’ कहलाने में अपना अपमान समझता था. वैसे भी गरीब आदमी की औकात दाल बराबर ही हुआ करती थी. मुर्गी कहाँ सबके नसीब में होती है जनाब. गरीब तो दाल-रोटी ही खाकर तृप्ति की ऊंची डकार लेकर ऐलान कर दिया करता था कि हुजूर हमारा पेट भर गया है.
बहरहाल, मामला कुछ यों है कि बाजार में मुर्गी और दाल का भाव एक हो गया तो ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ वाले मुहावरे को सच साबित करने की कुचेष्टा की जा रही है. नादान लोग समझ ही नहीं पा रहे कि इसमें सरकार का कोई दोष नहीं है. लाख समझाया जा रहा है उन्हें कि खराब मौसम के कारण दालों का उत्पादन प्रभावित हुआ है इसलिए वह महंगी हो गयी है. बियर विथ अस. मगर लोग हैं कि मानते नहीं, बस दाल का रोना लेकर बैठ गए हैं.
कहाँ दाल और कहाँ मुर्गी? कोई तालमेल ही नहीं दिखता. अरे भाई एक किलो की मुर्गी तो बस एक बार ही पकाई जा सकती है मगर दाल तो कई दिनों तक चलती है. घर में ज्यादा लोग हों तो ‘दे दाल में पानी..!’ वैसे भी विशेषज्ञ कहते हैं शरीर के लिए पानी बहुत जरूरी होता है. जितना ज्यादा पानी पीयेंगे उतना स्वस्थ रहेंगे.
तो भैया, ये दाल और मुर्गी की बेमतलब की तुलना करना छोड़ो. मुर्गी को मुर्गी ही रहने दो और दाल को दाल की तरह ही पकाओ-खाओ, उसे मुर्गी बनाने से गरीब आदमी का कोई भला नहीं होने वाला. हमारा तो बस इतना ही कहना है..आगे आपकी मरजी.

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