Monday, 18 July 2016

सामाजिक त्रासदी ;
मज़हब ही सिखाता है आपस में बैर रखना ;
फ्रांस के नीस में लोगों को अपनी विशाल ट्रक से रौंदता हुआ वहशी अल्ला हू अकबर का जाप क्या सिर्फ अपना मन बहलाने के लिए कर रहा था? यदि कोई आतंकी हनुमान चालीसा पढ़ते हुए या हर हर महादेव का नारा लगाते हुए दूसरों की हत्या करे तो क्या लोग उसे आतंकवादी कहने के साथ ही हिन्दू भी नहीं कहेंगे? मूढ़ों को यह कहते अब भी मितली नहीं आ रही कि आतंकियों का कोई मजहब नहीं होता?
किसी भी मजहब में ऐसा क्या है, जो उसके अंधभक्त को उग्रवादी और आतंकवादी, हद दर्जे का उन्मादी नहीं बना सकता। म्यांमार के बौद्ध तक इन दिनों वहां के मुस्लिम शरणार्थियों के पीछे हाथ धो कर पड़े हैं, उनके खिलाफ हिंसा पर उतर आये हैं। ये उसी बुद्ध के अनुयायी हैं जिन्हें करुणा और प्रेम का सागर कहा जाता है।
क्या तथाकथित प्रगतिशील लोग आतंक को धर्म से अलग करके धर्म की पवित्रता स्थापित करना चाहते हैं? क्या वे यह साबित करना चाहते हैं कि आतंकवाद का विष धर्म के पवित्र पात्र में समा ही नहीं सकता क्योंकि धर्म बड़ी ही शुद्ध और पवित्र वस्तु है? वास्तव में आतंकवाद को पनपने के लिए धर्म सबसे ज्यादा उर्वर भूमि उपलब्ध कराता है।
ये वैसा ही है जैसे किसी राजनीतिक दल के अराजक कार्यकर्ता सड़कों पर खून खराबा करें और उस दल का मुखिया कहे कि मेरा उन तत्वों से कुछ लेना देना नहीं। धर्म कभी भी शांति स्थापित नहीं कर सकते। जापान पर बम बरसाने वाले पायलट ने भी कहा था कि गॉड उसका सहचालक है।
‪#‎२१वीं_शताब्दी_का_सब_से_बड़ा_झूट‬
‪#‎आंतक_का_धर्म_नहीं_होता‬

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