मुस्लिम समाज बेहद नाउम्मीद दोहरेपन का शिकार है। एक तरफ़ तो देश के मुसलमान अपने लिए आधुनिक संस्थाओं का फ़ायदा चाहते हैं और दूसरी तरफ़, वे ऐसी आदिमता में यक़ीन करते हैं जिसे देखकर उनके लिए एक खीझ पैदा होती है। ऊंचे पहुंचे का पाजामा पहनना अरब की भौगोलिक स्थिति की ज़रूरत थी। कपड़े में रेत ना घुसे इसलिए लोग एड़ी से ऊपर का पाजामा पहना करते थे, पर भारत की भौगोलिक स्थिति बिल्कुल अलग है। यहां रेत नहीं, पर मुस्लिम फिर भी पाजामा ऊंचा ही पहनते हैं। मांस खाना है, पर सिर्फ़ हलाल। शराब क्योंकि हराम बताई गई है इसलिए शराब नहीं पीएंगे, पर सिगरेट और गांजे से कोई परहेज़ नहीं। मतलब आप शराब इसलिए नहीं पीते कि आपको पसंद नहीं, यह बात नहीं। आप इसलिए नहीं पीते कि आपका मज़हब इसकी इजाज़त नहीं देता। जो रवायतें चली आ रही हैं, उन्हें ज्यों-का-त्यों करते चले जाना ही अधिकतर मुस्लिम अपना फ़र्ज़ समझते हैं।
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