Sunday, 6 September 2015

महा पंडित फरेबदास की मरनोपरान्त व्यथा !
पंडित जी की मरनोपरान्त जब आंख खुली तो अपने को चित्रगुप्त के कार्यालय में पाया. अपने पंडितगिरी पर आत्मसन्तोश की भावना से फरेबदास ने आशावादी नजरों से चित्रगुप्त की तरफ देखा जो दिव्य कम्प्यूटर यंत्र पर उस का लेखा जोखा देख रहे थे. अगले ही क्षण चित्रगुप्त ने तिरस्कार की दृष्टि से घूरकर उस के हाथ में नरक की पर्ची थमा दी. पंडित जी रोते हुए चित्रगुप्त के सामने दंडवत गिर पड़े, "प्रभु, यह कैसा अंधेर है? अवश्य ही कहीं कोई गम्भीर भूल हो गई है".चित्रगुप्त ने गुस्से से कहा, "क्या कहते हो"?पंडित जी ने गिडगिडाते हुए निवेदन किया, "प्रभु, मेरे अवगुण चित न धरो.कुछ तो कहो, कौन सा पाप मेरे खाते में लिखा गया है".चित्रगुप्त ने कहा, "तुम्हारे खाते में पुण्य ही कहाँ है? अच्छा यह बताओ ब्रह्मण के लिए कौन से छह निर्धारित कर्म हैं ".फरेबदास ने उत्साहित होकर तोतारटंत आवाज़ में कहा, "अध्यनं अध्यापनं यजनं याजनं, दानं प्रतिग्रहं, ब्राह्मणाणं कल्पयत् ".चित्रगुप्त ने कहा, "यही तो तुम नैतिक उल्लंघन कर गये. खुद अध्ययन नहीं किया दूसरों को अध्यापन कराते रहे, खुद यज्ञ नहीं किया दूसरों को यज्ञ कराते रहे, खुद दान नहीं किया दूसरों से दान लेते रहे. मरने के बाद भी खाली हाथ हिलाते यहाँ आ पहुंचे हो. आखिर हमारा भी परिवार है, आशायें हैं, अभिलाषायें हैं, महंगाई भी है, केवल वेतन पर कैसे गुज़ारा हो सकता है ?तुम्हारा पेट पेट था, हमारा पेट पेट नहीं है क्या? स्वर्ग की अप्सराओं का नृत्य क्या फोकट में देखोगे? अब चुपचाप अपना रास्ता नापो. काम काफी होने के कारण मुझे ओवरटाइम काम करना पड़ता है जिस के लिए ओवरटाइम एलावंस भी नहीं मिलता है".पंडित जी नतमस्तक होकर कातर वाणी से गाने लगे, "हरे राम हरे राम रामराम हरेहरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्णकृष्ण हरेहरे".चित्रगुप्त ने व्यंग्य भरे स्वर में टोका,"बंद करो यह नौटंकी, मैं तेरा यजमान नहीं हूँ. मूर्ख हरे हरे नोट खुद ड़कार गये और मेरे पास यहाँ खाली हाथ आये हो. चित्रगुप्त तुम्हें शाबासी देगा क्या ".
और फिर सेवकगण महापंडित फरेबदास को घसीटते हुए नरक विभाग की ओर ले गए.

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