Saturday, 11 April 2015

प्राचीन भारत में तर्कशीलता !
# न स्वर्गो नाsपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः
नैव वर्णश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः !
अर्थात न कोई स्वर्ग है,न कोई नरक है और न कोई परलोक में जाने वाली आत्मा है.न वर्णाश्रम की क्रिया फलदायक है.
# अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्
बूद्धिपौरूषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः !
अर्थात अग्निहोत्र (हवनादि),तीन वेदों का अध्यन,तीन दण्ड़ तथा शरीर पर भस्म लगाना बुद्धि और पुरूषार्थ विहीन लोगों की जीवका का साधन है जो उन के पूर्वज बना गये हैं.
# पशुश्चेन्निहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति
स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिमस्यते ?
अर्थात जो यज्ञ में पशु को मार होम करने से वह स्वर्ग को जाता है तो यज्ञकर्ता यजमान अपने पितादि को मार होम करके स्वर्ग को क्यों नहीं भेजता ?
# मृतानामपि जन्तुनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्
गच्छतामिह जन्तुनां व्यर्थं पाथेयकल्पनम् !
अर्थात जो मरे हुए जीवों का श्राद्ध और तर्पण तृप्तिकारक होता है तो परदेस में जाने वाले निर्वाहार्थ अन्न वस्त्र और धनादि क्यों ले जाते हैं ? श्राद्ध तथा तर्पण द्वारा उन को वस्तुऐं क्यों नहीं भेजी जा सकती ?
# स्वर्गस्थिता यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः
प्रसादस्योपरिस्थानमत्र कस्मान्न. दीयते ?
अर्थात जो मृत्योलोक में मृतकों के नाम दान करने से वह स्वर्गवासी तृप्त हो जाते हैं तो मकान की निचली मंज़िल में दान करने से वह सामग्री मकान की उपरी मंज़िल में ठहरे लोगों को क्यों नही मिलती ?
(चारवाक दर्शन पृष्ट ४,श्लोक १-२; पृष्ट ५ श्लोक २-१०).

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