कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन;
२१वीं शताब्दी में कर्म योग का व्यवहारिक पहलू !
# संघ परिवार के महारत्न हरियाणा प्रदेश के मुख्यमन्त्री ने प्रदेश में गीता का अध्यन अनिवार्य कर दिया है .इस से पूर्व संघ परिवार की ओर से यह प्रवचन भी देशवासियों को दिया गया कि गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित किया जाये.तर्क में दम है और हिंदू राष्ट्र की प्राचीन गौरवशाली परम्पराओं को पुनः स्थापित करने का प्रगतिशील माध्यम भी.
अधिकांश लोग इस श्लोक (गीता,२/४७) की प्रथम पंक्ति का अर्थ " तेरा कर्म करने में ही अधिकार है,फल प्राप्ति में कभी नहीं" लगाते हैं परन्तु संस्कृत भाषा के व्याकरण अनुसार इस का वास्तविक अर्थ है "तेरा कर्म करने में ही अधिकार हो,फल प्राप्ति में कभी न हो".श्लोक की दूसरी पंक्ति की अर्थ है "तू कर्म में फल की इच्छा वाला न हो."
वेद व्यास ने भले ही कृष्ण के माध्यम से यह उपदेश हज़ारों वर्ष पहले दिया हो परन्तु २१वीं शताब्दी में राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग तथा बहुराष्ट्रीय संस्थानों और भाजपा के राजनीतिक हित के लिए यह प्रवचन कितना सार्थक उद्देश्यपूर्ण और व्यवहारिक है -इस की कल्पना की जा सकती है.
कारखानों कार्यालयों तथा अन्य सभी संस्थानों की दीवारों पर "कर्मण्येवाधिकारस्ते...." बड़े बड़े अक्षरों में लिखा जाना चाहिए.सभी अधिकारियों और पूंजीपति वर्ग के लिए इस से अच्छा घोषणापत्र और कुछ हो नहीं सकता.कर्मचारियों को केवल काम करने का अधिकार होगा फल(वेतन आदि अन्य सुविधायें) पाने का अधिकार नहीं होगा.उन्हें खूब मन लगाकर काम करना होगा और यह सम्बन्धित अधिकारियों का अधिकार होगा कि वह उन्हें थोड़ा बहुत वेतन आदि दें अथवा न दें.
ऐसे क्रान्तिकारी कदम से जहां एक तरफ बेकारी समाप्त होगी ,वहीं दूसरी ओर "देशद्रोही" वामपंथी कर्मचारियों को संगठित करके संघर्ष के पथ पर नहीं ले जा पायेंगे.
जय हिंदू राष्ट्र !
२१वीं शताब्दी में कर्म योग का व्यवहारिक पहलू !
# संघ परिवार के महारत्न हरियाणा प्रदेश के मुख्यमन्त्री ने प्रदेश में गीता का अध्यन अनिवार्य कर दिया है .इस से पूर्व संघ परिवार की ओर से यह प्रवचन भी देशवासियों को दिया गया कि गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित किया जाये.तर्क में दम है और हिंदू राष्ट्र की प्राचीन गौरवशाली परम्पराओं को पुनः स्थापित करने का प्रगतिशील माध्यम भी.
अधिकांश लोग इस श्लोक (गीता,२/४७) की प्रथम पंक्ति का अर्थ " तेरा कर्म करने में ही अधिकार है,फल प्राप्ति में कभी नहीं" लगाते हैं परन्तु संस्कृत भाषा के व्याकरण अनुसार इस का वास्तविक अर्थ है "तेरा कर्म करने में ही अधिकार हो,फल प्राप्ति में कभी न हो".श्लोक की दूसरी पंक्ति की अर्थ है "तू कर्म में फल की इच्छा वाला न हो."
वेद व्यास ने भले ही कृष्ण के माध्यम से यह उपदेश हज़ारों वर्ष पहले दिया हो परन्तु २१वीं शताब्दी में राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग तथा बहुराष्ट्रीय संस्थानों और भाजपा के राजनीतिक हित के लिए यह प्रवचन कितना सार्थक उद्देश्यपूर्ण और व्यवहारिक है -इस की कल्पना की जा सकती है.
कारखानों कार्यालयों तथा अन्य सभी संस्थानों की दीवारों पर "कर्मण्येवाधिकारस्ते...." बड़े बड़े अक्षरों में लिखा जाना चाहिए.सभी अधिकारियों और पूंजीपति वर्ग के लिए इस से अच्छा घोषणापत्र और कुछ हो नहीं सकता.कर्मचारियों को केवल काम करने का अधिकार होगा फल(वेतन आदि अन्य सुविधायें) पाने का अधिकार नहीं होगा.उन्हें खूब मन लगाकर काम करना होगा और यह सम्बन्धित अधिकारियों का अधिकार होगा कि वह उन्हें थोड़ा बहुत वेतन आदि दें अथवा न दें.
ऐसे क्रान्तिकारी कदम से जहां एक तरफ बेकारी समाप्त होगी ,वहीं दूसरी ओर "देशद्रोही" वामपंथी कर्मचारियों को संगठित करके संघर्ष के पथ पर नहीं ले जा पायेंगे.
जय हिंदू राष्ट्र !
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