Tuesday, 15 August 2017

यह कैसा प्रजातंत्र-यह कैसी विडम्बना ???
प्रधानमंत्री अपनी पसन्द के ट्टवीट करते हैं,योजनाओं का उदघाटन करते हैं,चुनावी सभाओं में भाषण देते हैं , विश्व स्तर पर सुनते सुनाते हैं और नियमित रूप से अपने मन की बात परोसते हैं परन्तु प्रत्यक्ष प्रश्न उत्तर सेशन एवं प्रेस कांफ्रेंस ( जहां असुविधाजनक प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं) के अभाव में सम्भवतः वह जनता की बात सुनना ही नहीं चाहते ।वह देश के पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने प्रेस कांफ्रेंस में बोलने की परम्परा को लगभग समाप्त ही कर दिया है ।इस के साथ साथ प्रजातंत्र का चौथा खम्मा (मीडिया) जिस का अधिकांश भाग अपने निहित स्वार्थों के खातिर सरकारी तुष्टीकरण में लगा हुआ है अपनी आधारभूत विश्वसनीयता खो चुका है। एक तरफा विचार परोसने का क्रम किसी भी दृष्टिकोण से जन हिताय या प्रजातांत्रिक नहीं हो सकता है ।चिंता और चिंतन का विषय यह भी है कि अधिनायकवादी सोच के प्रतीक के रूप में संघ का शीर्षस्थ नेतृत्व केवल समर्पित विरोध और विरोधियों को बर्दाश्त करने को तैय्यार है न कि किसी सकारात्मक विरोध या विरोधियों को। स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर त्रिपुरा के मुख्यमंत्री की संविधानिक अभिव्यक्ति का गला घोंटना इसी अधिनायकवादी सोच का एक नमूना है ।राज्य सभा में वर्चस्व स्थापित होने के बाद क्या-क्या गुल खिलेंगे- इस की कल्पना स्वतः की जा सकती है ।

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