Monday, 14 August 2017

यह कैसी स्वतंत्रता ?
"आज़ादी " के 70 वर्ष गुज़र जाने के बाद भी आज भी राज्य पर नियंत्रण और सत्ता एक वर्ग विशेष के हाथों में केंद्रित है जो आज्ञाकारी नौकरशाही की सहायता से पूंजीपति वर्ग के हितों के संविधानिक रक्षक (constitutional custodian) का दायित्व निभाने का कार्य कर रहा है. चेहरे बदल जाते हैं परन्तु मूल शोषणकारी व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होता. ऐसी जनविरोधी व्यवस्था के वर्चस्व के लिए आर्थिक परिवर्तन का नारा दिया जाता है न कि मानसिक विकास का.यदि कोई समाज में समुचित मूलभूत व्यवस्था परिवर्तन की बात करता है तो उसे "देशद्रोही आतंकवादी "परिभाषित किया जाता है.
आज क्रांतिकारी कवि फैज़ अहमद फैज़ की अभिव्यक्ति मन मस्तिष्क में गूंज रही है :-
"यह दाग दाग उजाला, यह शब गुज़ीदा सहर,
वह जिस का इन्तज़ार था हम को,
यह वह सहर तो नहीं,
यह वह सहर तो नहीं, जिस की आरज़ू लेकर,
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं,
फलक के दशत में,
तारों की आखिरी मंज़िल.[This dawn dappled with shadows of twilight,
this is not the dawn for which we waited all night,
this is not the dawn that we had hoped for,
when we comrades set out on our march to the hope,
that somewhere in the vast wilderness,we will find our destination beyond the stars]".

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