Tuesday, 31 January 2017

श्रीमद् भगवतगीता के परिवेश में मृत शरीर और आत्मा !
हिन्दू धर्म में आस्था रखने वालों के लिए गीता कर्म, व्यवहार और चिंतन के लिए बहुप्रचारित एवं बहुचर्चित आचार संहिता है. इसी आधार पर मरणोपरांत परम्पराओं और कर्मकांड में गीता के निम्न श्लोक को अवश्य दोहराया जाता है :-
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः,
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः."(गीता 2/23).(आत्मा को न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है ).
संक्षिप्त में कहें तो आत्मा निर्लिप्त है और मिथ अनुसार एक शरीर त्याग कर तुरन्त दूसरी योनि/शरीर में प्रवेश कर जाती है. उस की कोई अभिलाषा नहीं होती.
रह गया मृतावस्था को प्राप्त शरीर, वह दहसंस्कार के पश्चात भस्मावस्था को प्राप्त हो जाता है. ऐसी अवस्था में मरनोपरान्त कर्मकांड, श्राद्ध तथा दान दक्षिणा के तामजाम का औचित्य क्या है? मूलतः यह सारी शोषणकारी व्यवस्था परजीवी ब्राह्मणों के पूर्वजों ने अपनी आने वाली पीढियों के लिए मुफ्त हलवे मांड़े और आर्थिक सम्पन्नता का बिना परिश्रम का साधन है. जहाँ तक मृतक के प्रति आदर, संवेदना और भावना का सम्बन्ध है तो दान दक्षिणा और हलवा मांड़ा, वह ब्रह्मणों को ही क्यों? समाज के शोषित गरीब, असहाय, विकलांग, अन्न के एक एक दाने को तरसते लोगों के लिए क्यों नहीं ???
इस विषय में भारत उपमहाद्वीप में तर्कशीलता के प्राचीन संस्थापक चार्वाक की टिप्पणी प्रासंगिक है :-
"स्वर्गस्थिता यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः,
प्रासादस्योपरिस्थानमात्र कस्मान्न दीयते? "
(चार्वाक दर्शन, पृष्ठ 4,श्लोक 5).
अर्थात यदि इस संसार में दान करने से, वह वस्तु स्वर्गवासी तक पहुँच कर उसे तृप्त करती है, तो मकान की निचली मंज़िल में दी गई कोई वस्तु ऊपरी मंज़िल में बैठे व्यक्ति तक पहुंच कर उसे क्यों नहीं तृप्त करती???

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