कन्हैया प्रकरण भाजपा के दोगलेपन का मुंह बोलता प्रमाण भी है। एक ओर तो इस पार्टी ने कन्हैया पर बगावत का आरोप लगाया है, वहीं दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर में सत्ता की सीढिय़ां चढऩे के लिए इसने मुफ्ती मोहम्मद सईद की पी.डी.पी. के साथ गठबंधन बना रखा है। मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के कुछ घंटे के भीतर ही मुफ्ती ने अलगाववादी हुर्रियत और आतंकी संगठनों को इस बात का श्रेय दिया था कि उन्होंने चुनाव करवाने के लिए साजगार माहौल पैदा किया था। उनकी सरकार ने अलगाववादी नेता मसरत आलम को भी रिहा कर दिया था।
बगावत के मुद्दे पर भाजपा का पाखंडपूर्ण रवैया इस तथ्य से भी प्रतिबिम्बित होता है कि पंजाब में इसने मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल सहित अकाली नेताओं द्वारा 1983 में गुरुद्वारा रकाबगंज दिल्ली के सामने संविधान की धारा 25 की प्रतियां जलाए जाने के ‘बगावती कृत्य’ की अनदेखी करते हुए अकाली दल के साथ सरकार बनाने के लिए हाथ मिला लिए। क्या संविधान को जलाया जाना कन्हैया के कथित बगावती कृत्य से कहीं अधिक गंभीर आपराधिक मामला नहीं?
ऐसा लगता है कि जे.एन.यू. प्रकरण भाजपा
के वैचारिक प्रेरणा स्रोत आर.एस.एस. की देश भर में उत्कृष्टता के केन्द्रों, खास तौर पर शिक्षा, पत्रकारिता, फिल्म निर्माण, कला एवं सांस्कृतिक संस्थानों पर नियंत्रण करने की रणनीति का हिस्सा है। इस लक्ष्य को साधने के लिए ही मोदी सरकार ने अपने सैद्धांतिक रूप में प्रतिबद्ध वफादारों को ऐसे संस्थानों का प्रमुख बनाना शुरू कर दिया है, बेशक उनमें से कुछ एक मैरिट के मामले में कहीं नहीं ठहरते।
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