Sunday, 22 March 2015

आत्मा का स्वरूप उपनिषदों की ज़बानी !
परस्परविरोधी कथन ;
आत्मा उपनिषदों का केन्द्रीय तत्व है.यह तथाकथित परमात्मा और जगत के बीच का संपर्क सूत्र है.उपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्म को जान लेने के बाद सब कुछ ज्ञात हो जाता है.उपनिषद ऐसे ही तथाकथित सर्वज्ञ ब्रह्मवेत्ताओं की रचनाएं कहे जाते हैं.परन्तु ब्रह्म को जान लेने के बाद सब कुछ ज्ञात होने का सिद्धान्त थोथी ड़ींग मात्र प्रतीत होता है.एक ही ब्रह्म को सब के प्राप्त होने पर सब एक जैसे सर्वज्ञ होने चाहिए,सब का ज्ञान एक जैसा होना चाहिए,परन्तु एक 'ब्रह्मज्ञानी' का ज्ञान दूसरे से मेल नहीं खाता.प्रत्येक ज्ञानी सब कुछ जानने का दावा करते हुए अपनी ही हांक रहा है.
# कठोपनिषद कहता है :-
अंगुष्टमात्रः आत्मा (२/३/१७). अर्थात आत्मा अंगूठे के आकार की है.
# श्वेताश्वतर का ब्रह्मज्ञानी कहता है :-
वालाग्रशतभागस्य शतधा........(५/९).
अर्थात बाल के अगले भाग का जो सौवां भाग है,उस भाग के सौवें भाग के समान जीवात्मा है.
# छांदोग्य उपनिषद का ब्रह्मज्ञानी कहता है :-
एष म आत्मांतर्हृदयेsणीयान् ...........(३/१४/३).
अर्थात यह आत्मा चावल,जौ,सरसों के दाने से छोटी है.इसी श्लोक में विरोधाभास के प्रतीकस्वरूप कहा गया है कि आत्मा पृथवी अंतरिक्ष और दूसरे लोकों से बड़ी है.
# मुंडकोपनिषद का ब्रह्मज्ञानी कहता है :-
एषोsणुरात्मा. (३/१/९).
अर्थात यह आत्मा अणु है.
हर एक ने बिना किसी आधार और प्रमाण के अपनी अपनी हांकी है.ऐसे ज्ञान को समझने के लिए भला विवेक की क्या आवश्यकता है.इसी ज्ञान को भजनमण्डली सरकार प्राचीन महान विज्ञान के रूप में परिभाषित करती है.
जय हिन्दु राष्ट्र !

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