वेदों की ही विचारधारा आगे महाकाव्यों में प्रतिफलित हुई । महाभारत में जो ‘गीता‘ मिलती है , उसका प्रमुख लक्ष्य युद्धोन्माद पैदा करना ही है । इस की रचना ही अर्जुन में युद्धलिप्सा जगाने के लिए की गई थी , यद्यपि यह तो नहीं माना जा सकता कि वर्तमान गीता का एक एक शब्द युद्धक्षेत्र में लिखा व कहा गया था । पिछले कम से कम एक हज़ार वर्षों से महाभारत के भीष्म पर्व में जिस रूप में गीता मिलती है , उस से पता चलता है कि जब अर्जुन धनुषबाण छोड़कर युद्ध से विमुख होता है तब श्रीकृष्ण , जो गीता का कथित वक्ता है , उसे अनार्य आदि कहकर फटकार लगाता है और अपनी विविध बातों से उसे युद्ध के लिए भड़काता है तथा संबंधियों को युद्ध में क़त्ल करने में किसी भी प्रकार की अनैतिकता न होने की बात करता है । उदाहरण के लिए कुछ कथन प्रस्तुत हैं -
यदृच्छया चोप्पन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्
अथ चेत् त्वमिमं धम्र्यं संग्रामं न करिष्यसि
ततः स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्ययसि
( गीता , 2-32,33 )
अर्थात हे अर्जुन , इस तरह के युद्ध का मौक़ा ख़ुशक़िस्मत क्षत्रियों को ही प्राप्त होता है , यह तो स्वर्ग के खुले द्वार सा है । यदि तू इस धर्मयुद्ध को नहीं करेगा , ( क्षत्रिय होने से युद्ध करना तेरा धर्म है , ) तो तेरा धर्म व यश नष्ट हो जाएगा और तुझे पाप लगेगा ।
हतो वा प्राप्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय :
( गीता , 2-37 )
अर्थात हे अर्जुन , यदि तू इस युद्ध में मारा गया तो तुझे स्वर्ग की प्राप्ति होगी । यदि तू जीत गया तो पृथ्वी का भोग करेगा । अतः उठ और युद्ध के लिए तैयार हो ।
युद्धाय युज्यस्व ( गीता , 2-38 )
अर्थात युद्ध करने के लिए युद्ध करो ।
निर्ममो भूत्वा युध्यस्व ( गीता , 3-30 )
अर्थात ममतारहित होकर युद्ध करो ।
तस्मात् त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून भुंक्ष्व राज्यं समृद्धम् ( गीता , 3-33 )
अर्थात अर्जुन , उठो यश प्राप्त करो और शत्रुओं को जीत कर इस समृद्ध राज्य का आनन्द उठाओ ।
सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ( गीता , 8-7 )
अर्थात हे अर्जुन , तू मेरा अर्थात मुझ परमात्मा का स्मरण कर और युद्ध कर ।
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