कितने नरेंद्र दाभोलकर? कितने गोविंद पानसरे? लगता है लोगों के हित व हक़ के लिए लड़ने वाली आवाज़ें अब और भी संकट में पड़ने वाली हैं वैसे तो हम इतिहास से सुनते आ ही रहे हैं कि जो आवाज़ें समाज की बेहतरी या उत्पीड़ितों के लिए उठीं उन्हें या तो दुनिया की नज़रों में बुरा साबित किया गया या फिर मौत के हवाले कर दिया गया. अगर हम दूर इतिहास की बात छोड़ दें और हाल के कुछ दशकों को देखें तो भी हम लगभग ऐसे ही उदाहरण पाएँगे. नुक्कड़ नाटक करते सफ़दर हाशमी को सरे आम गोली मारी जाती है और वो भी राजनैतिक गुंडों के द्वारा जिन्हें शह कहाँ से मिली हम सभी जानते हैं. छत्तीसगढ़ में खदान मज़दूरों के लिए आवाज़ बुलंद करने वाले और हाशिए पर पड़े उन लोगों को एकजुट करने वाले शंकर गुहा नियोगी को भी कुछ इसी तरह मुनाफाखोरों के इशारे पर मारा गया. देखें अमन सेठी का यह लेख (http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/the-fivelegged-elephant/article2497776.ece). अब की बात करें तो नरेंद्र दाभोलकर और गोविन्द पानसरे के नाम भी उसी श्रेणी में आते हैं. ये बात ज़रूर है कि लोगों के दिलों में आज भी सफ़दर हों या नियोगी, पानसरे या दाभोलकर, उनकी विचारधारा ज़िन्दा है और रहेगी. पर सवाल ये है कि आख़िर जनतंत्र, लोकतंत्र में उठी आवाज़ को दबाने वाली विचारधाराएँ और समूह खुलेआम सर उठाकर कब तक घूमते रहेंगे. गोविन्द पानसरे पर हुए हमले और उनकी मौत ने ये सवाल फिर से खड़ा कर दिया है कि क्या खुलकर अपनी बात अभिव्यक्त करना और सर उठाती कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ बोलना, कमज़ोर तबके के लिए लड़ना या जनता को अन्धविश्वास के खिलाफ एकजुट करना मौत की राह है. ऐसा करने वालों को क्या जान की कीमत ही चुकानी होगी? और वो ताकतें जो इंसान को इंसान से अलग करने में, लूट पर व शोषण पर अपनी सत्ता और शान चलाती हैं वे जीतती रहेंगी. पानसरे की बात करें तो यह वामपंथी नेता सिर्फ राजनैतिक फायदों वाला व्यक्ति नहीं था बल्कि लोगों के लिए और सामाजिक मुद्दों पर खुल कर बोलने वाला एक कार्यकर्ता था. हाल की ख़बरों से मिली जानकारी से हम जानते हैं कि कैसे खुलकर उन्होंने नाथूराम गोडसे को हीरो बनाने को तर्कों से ग़लत साबित किया था. या फिर शिवाजी के बारे में उनके विचार एक राजनैतिक धर्मान्ध या अंधभक्त की तरह साम्प्रदायिकता के चश्मे से ना होकर तर्कों पर आधारित थे जो उन्हें एक सामाजिक नेता के रूप में उभारते थे. पानसरे को धमकियां लगातार मिल रही थीं. उन्हें दूसरा दाभोलकर बनाने को भी कहा गया था मतलब दाभोलकर की तरह जान से मारने की धमकी. दाभोलकर याने नरेंद्र दाभोलकर जिन्हें क़रीब डेढ़ साल पहले ठीक इसी तरह बाइक सवार हत्यारों ने गोली मार दी थी. दाभोलकर महाराष्ट्र के बड़े रेशनलिस्ट माने जाते थे जो धर्म के नाम पर पाखंडों को और जनता को ठगने वाले बाबाओं के खिलाफ लोगों को सजग करते थे दरअसल दाभोलकर और उनकी संस्था महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति पूरी तरह से तर्कों व वैज्ञानिक सोच पर आधारित है और अंधविश्वास, महिला उत्पीड़न आदि महत्वपूर्ण मुद्दों पर खुलकर काम करती रही है. लीना मैथियस (Lina mathias) के सितम्बर 2013 के economic and political weekly के लेख में उन्होंने लिखा है कि दाभोलकर की संस्था महिलाओं को, मानसिक रोगियों को बाबाओं के चंगुल में जाने से बचाने के साथ ही लगभग हर उस मुद्दे पर काम करती थी जो आम इंसानों के जनजीवन से जुड़ा रहता था या जो राजनैतिक दलों के लिए मशहूर नहीं होता था. चाहे बालिका विवाह की बात हो या देवदासी प्रथा को रोकने की, या छल कपट पर आधारित बाबाओं का पर्दाफाश करने की. ऐसे तमाम मुद्दे थे जिनसे दाभोलकर के कई दुश्मन भी बन गए थे और उनके आयोजनों में हिंसक विरोध व धमिकयां तो मिलना आम हो गया था. आज दाभोलकर की भले ही अज्ञात हत्यारों ने जान ले ली हो पर उनके विचार व संस्था अभी भी जिंदा हैं और रहेंगे. यहाँ दाभोलकर और उनकी संस्था के बारे में देखें http://antisuperstition.org/index.php?option=com_content&view=article&id=139&Itemid=115 गोविन्द पानसरे के विचारों के साथ भी ठीक यही होगा, विचार हमेशा ज़िन्दा रहेंगे. पर अफ़सोस की बात यह है की उस वक्त भी सरकार नाकाम रही और यहाँ भी सरकार नाकाम रही है अब तक. और हो भी क्यों ना, कट्टरपंथी व मानवता विरोधी ताकतों की जगह सरकारें तो सामाजिक कार्यकर्ताओं को अंदर करने व उन पर लगाम कसने को तैयार हैं चाहे तीस्ता सीतलवाड़ हों या ग्रीनपीस संस्था. चाहे कुडनकुलम आन्दोलन के उदय कुमार हों या मेधा पाटकर. उन पर ही तरह तरह के आरोप लग रहे हैं और गुंडे, मुनाफाखोर, साम्प्रदायिक, दबंग लोग नेता या उनके पिछलग्गू बने घूम रहे हैं. ऐसे में समाज के पिछड़े तबकों के लिए आवाज़ बुलंद करने वाले लोगों को चाहे वो आर. टी. आई के एक्टिविस्ट हों या जल जंगल व ज़मीन की लड़ाई के लोग या फिर कट्टरपंथ व धर्मान्ध अंधविश्वास पर बोलने वाले कार्यकर्ता सबकी सुरक्षा पर ऐसे हमले सवालिया निशान लगाते हैं और साथ ही सवाल उठाते हैं कानून व प्रशासन की अकर्मण्यता पर.
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