Monday, 27 February 2017

DIVINE MISOGYNY;
DENIGRATION OF WOMEN IN VEDAS  !
* Lord Indra himself has said that women has very little intelligence and can neither be reformed nor taught.
* There cannot be any friendship with a women. Her heart is more cruel than that of a hyena .
* Women are without energy .They should not get a share in the property.
दिल्ली की सड़कों पर वंदेमातरम का नारा लगानेवाले संकीर्णतावादियों में से कितने हैं जो आतंकवादियों से भिड़ने और उनकी गोलियां खाने के लिए तैयार हो जाएंगे? हां, एक असहाय लड़की का रेप करना हो तो शायद उनमें से कई आगे आ जाएं। शाबाश, आप जैसे संकीर्णतावादियों से यही उम्मीद थी।
संस्कारी पहलाज निहलानी का सांस्कृतिक अधिनायकवाद !
नारी प्रधान फिल्म "लिपस्टिक अंडर माय बुरका"की पटकथा एवं निर्देशन में नारी का ही योगदान है जिसमें रत्ना पाठक शाह तथा कोंकण सेन शर्मा जैसी जानी मानी कलाकारों ने भूमिका निभायी है .फिल्म बोल्ड श्रेणी की है तथा नारी की मानसिक उडान तथा अभिलाषाओं को चित्रित करती है. नारी की आज़ाद अभिव्यक्ति का समर्थन  भला संघ परिवार के संस्कारी पहलाज निहलानी मनुवादी आचार संहिता के परिवेष में कैसे कर सकते हैं अतः फिल्मों के वर्गीकरण संबंधित केन्द्रीय बोर्ड के बॉस के नाते प्रदर्शन की अनुमति देने से इंकार कर दिया. त्रासदी देखें जहाँ विदेशों में फिल्म को खूब सरहा जा रहा है वहीं भारतीय जनता को यह फिल्म देखने की अनुमति नहीं है .
कुछ समय पहले भारत सरकार ने वर्गीकरण बोर्ड [Central board for film certification]को अधिक सार्थक एवं पारदर्शक बनाने की दिशा में श्याम बेनेगल समिति का घटन किया था और मन जाता है कि समिति ने अपनी रिपोर्ट और सुझाव दिए हैं. CBFC बोर्ड का कार्य केवल फिल्मों का वर्गीकरण है जिस के अंतर्गत प्रमाणपत्र देना है की फिल्म १२ प्लस आयु वाला देख सकता है या १८ प्लस आयु वाला. जाने माने फ़िल्मकार श्याम बेनेगल का तर्क है की यदि प्रजातंत्र में एक एडल्ट को सरकार चुनने का संविधानिक अधिकार है तो वह अपनी मर्जी से फिल्म क्यों नहीं देख सकते ?

Sunday, 26 February 2017

SACK SANSKARI CBFC SUPREMO PAHLAJ NIHALANI  !
In its latest act of tyranny,CBFC refuses to certify film "Lipstick under my Burka"for being #lady_oriented. The tyrannical writ of this sanskari CBFC has run too long. There must be no further delay in reforming it as recommended by te Shyam Benegal committee. In essence this means the board should stop scissoring or obstructing films and remain restricted to classifying them-like suitable them for over 12 years of age or over 18. As Benegal points out 'in a free democracy where all citizens have the power to choose their government,why should anybody usurp their power to decide what films to see and what  not ?
दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज में जिस तरह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के सदस्यों ने उत्पात मचाया, उससे एक बार फिर साबित हुआ कि मोदी सरकार न सिर्फ देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में नियुक्तियों और कामकाज के स्तर पर हस्तक्षेप कर रही है, बल्कि खुल्लमखुल्ला कैंपस की राजनीति का हिस्सा बनकर वहां का माहौल भी बिगाड़ रही है। हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी और जेएनयू में यह खेल किस तरह खेला गया, पूरे देश ने देखा। अब डीयू को निशाना बनाया जा रहा है।

गौरतलब है कि रामजस कॉलेज के एक कार्यक्रम में जेएनयू छात्र संघ की पूर्व उपाध्यक्ष शेहला राशिद और वहीं के छात्र नेता उमर खालिद को बुलाए जाने के विरोध में मंगलवार को एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने काफी हंगामा किया था, जिसके चलते वे दोनों कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सके। एबीवीपी के इस हंगामे के विरोध में आइसा और एसएफआई समेत विभिन्न छात्र संगठनों ने बुधवार को विरोध मार्च निकाला, जिस पर एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने हिंसक हमला किया। कई शिक्षकों और छात्रों को चोटें आईं। पत्रकारों की भी पिटाई की गई। लेकिन इस दौरान वहां मौजूद दिल्ली पुलिस का रवैया बेहद लचर था। अगर उसने तत्परता दिखाई होती तो हालात इस कदर नहीं बिगड़ते। एबीवीपी का कहना है कि कॉलेज के छात्र नहीं चाहते थे कि उमर खालिद जैसे ‘देशद्रोही’ को कॉलेज में बोलने दिया जाए। पर एबीवीपी को यह याद नहीं रहा कि जनतंत्र में विरोध का तरीका क्या है।

असल में बीजेपी के केंद्र की सत्ता संभालने के बाद से उसके हौसले आसमान छू रहे हैं। उसे लगता है कि छात्र राजनीति में जो भी उदारवादी जमीन बची है, उसे हथियाने का यही वक्त है। बीजेपी और संघ के नेताओं का तो उसे खुला समर्थन मिल ही रहा है, सरकारी तंत्र भी उसके साथ खड़ा है। लेकिन इस छात्र संगठन से जुड़े लोगों को ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए कि वैचारिक खुलेपन और लोकतांत्रिकता के बिना भारत के प्रतिष्ठित उच्च शिक्षा संस्थानों की औकात दो कौड़ी भी नहीं रह जाएगी। इन संस्थानों के अहम पदों पर दोयम दर्जे के लोगों को बिठाकर और परिसरों को हिंसा का अखाड़ा बनाकर देश को नॉलेज पावर नहीं बनाया जा सकता।
ईश्वर का बहिष्कारः-
जहाँ शारीरिक हानि पहुँचाने के लिये अनेक नशेबाजी और दुराचार के अड्डे होते हैं, वहीं मनुष्य को मानसिक हानि पहुँचाने एवं निकम्मा बनाने के लिये धार्मिक अड़्डे (धर्म-स्थल) भी हैं। यह सब काम काबू याफ्ता शासन और शासक मण्डल के हित के लिये उनके दलालों अर्थात् पुरोहितों द्वारा सरकार की छत्रछाया में बसने वाले गरीबों को लूटने वाले अमीरों की मदद से हुआ करता है। मूर्ख ग्रमीणों के दिमाग में जहाँ एक बार कोई बेवकूफी घर कर गई, फिर मुश्किल से निकलती है। इन बेचारों में ज्ञान नहीं, विवेक नहीं, समझ नहीं, विद्या नहीं, खाने को अन्न और पहनने का वस्त्र तक इनके पास नहीं। जो चाहे इन्हें पंडित, मौलवी, पादरी बनकर ठग सकता है, धोखे में डाल सकता है और अपनी अर्थ सिद्धि का साधन बना सकता है। पीढ़ियों से इन बेचारों का यही हाल है। सिखाने वाले धनिक, पुरोहित और राजकमर्चारियों में से कोई भी ईश्वर को नहीं मानता, पर हरेक ईश्वर को मानने का ढ़ोंग रचता है। मैं पूछता हूँ कौन पंडित, मौलवी, पादरी, राजा-रईस और सेठ- साहूकार ऐसा है जो झूठ नहीं बोलता, फरेब नहीं करता और तमाम दुनियाँ की बदमाशियाों से पाक है, इस हालत में कोई चतुर मनुष्य यह कैसे मान सकता है कि लोग ईश्वर की हस्ती के कायल हैं, परमात्म की सत्ता को स्वीकार करते हैं। इसलिये ईश्वर कोई चीज नहीं है, सिवा इसके कि गरीबों को ठगने के लिये ठगी का एक जाल है।यह जाल जितनी जल्दी तोड़ दिया जाये उतना ही अच्छा। -- (ईश्वर का बहिष्कार पेज नं. 17 से 18, लेखक-राधामोहन गोकुल)

Saturday, 25 February 2017

Bhagat Singh
Attempts by  torch bearers of saffron brigade to link Bhagat Singh and his comrades’ execution with Valentine’s Day. Section 11 of Ordinance No. III of 1930 under which they were tried by the Special Tribunal and awarded death sentence on Oct 7, 1930 specifically prohibited any appeal to the High Court. The only recourse was to petition the Judicial Committee of the Privy Council in London, which they did. This petition was heard on Feb 11, 1931 by a Board and was dismissed the same day. The judgment was delivered by Viscount Dunedin on Feb 27, 1931. So, Bhagat Singh and his Comrades’ appeal did happen in February, but Feb 14 does not have any relevance. Bhagat Singh did not file any other appeal. 

Friday, 24 February 2017

AMIT SHAH'S MACHIAVELLIAN LOGIC !
Undoubtedly ,electoral victory in Utter Pradesh is of paramount significance for BJP for its long term political goals yet saffron supremo Amit Shah has hit a unprecedented new low in his rhetoric against their opponents. One wonders why Amit Shah cannot conduct electoral campaign with out coining "exclusive/extraordinary" new acronym and calling opponents "terrorists" ?It is indeed beyond any logic or comprehension to understand somewhat tortured coinage -Ka stood for congress, Sa for samajvadi party and B for BSP and accordingly UP electorate should be judicious enough to boycott polity symbolizing terrorist Kasab from Pakistan. Not learning any lesson from Bihar election where they had coined the slogan-vote against BJP will symbolize support for Pakistan /BJP's defeat will be celebrated in Pakistan, and even questioning DNA of Bihari's Amit Shah without mincing words in categorical sermon has declared that anybody who opposes BJP is a terrorist.
One can easily draw the conclusion that 31 percent who voted for BJP in May 2014 were celebrated patriots while 69 percent who voted against were traitors [read terrorists].
Tailpiece : Inspirational #deshbhakhti quote for rank and file of saffron brigade :-"Hindus -don't waste your energy fighting the British.Save your energy to fight our internal enemies that are Muslims, Christians and communists"![ M S Golwalker].
लखनऊ/अहमदाबाद। उप्र के चुनावों में इन दिनों गधों की धूम मची हुई है। ऐसे में आजम खान की भैंसें फालतू हैं। तो आजम की भैंस ने हाल-चाल जानने के लिए यूं ही गुजरात के गधे को फोन लगा लिया। लेकिन कुछ लोगों को इसमें राजनीतिक साजिश नजर आ गई। तो फोन टेप करवा लिया गया। hindisatire.com के हाथ लग गई इसकी रिकॉर्डिंग। पढ़ें इस बातचीत के मुख्य अंश :
आजम की भैंस : आजकल तो मजे हो रहे हैं। लाइमलाइट में आ गए हो भैया गर्दभ!
मोदी का गधा : वक्त-वक्त की बात है। चुनाव का मौसम है तो हमारी धूम है। कभी आपके जलवे थे।
आजम की भैंस : मुझे तो आपसे जलन हो रही है। अमिताभ भैया आपका प्रचार करते हैं। मोदीजी ने भी आपकी कित्ती तारीफ कर दी है।
मोदी का गधा : पुरानी बात क्यों भूल जाती हो, जब तुम किसी काले-कलूटे भैंसवा के साथ भाग गई थी। तब राज्य की पूरी पुलिस तुम्हारे लिए लगा दी गई थी।
आजम की भैंस : अब तुम पर्सनल हो रहे हो। ज्यादा नेता मत बनो।
मोदी का गधा : स्वॉरी… सॉरे (स्साले) इन नेताओं ने हमारी आत्मा भी भ्रष्ट कर दी। देखो, हम भी इतने घटियापन पर उतर आए, आई एम एक्ट्रीमली स्वॉरी।
आजम की भैंस : सही कहते हो भैया। इस राजनीति ने हम सीधे-सादे जानवरों को भी नहीं छोड़ा। चलो, अभी तो मैं फोन रखती हूं। क्या पता, गुजरात की लाइन देखकर कोई फोन ही टैप करवा लें।
मोदी का गधा : हां, चलो। मैं भी जरा TV देख लूं। हो सकता है कोई नया बयान मेरी शान बढ़ा रहा हो।

Thursday, 23 February 2017

VIOLENT BINARIES OF JINGOISTIC NATIONALISM !
Nationalism reduced to hunting for enemies who think differently makes nationalism an enemy of thought. The idea of culture is impossible without a certain freedom of ideas challenging each other. If nationalism cannot argue its case without allowing that freedom to exist and thrive, it divests itself from the fundamental meaning of culture. That is why we can no longer speak of any culture of nationalism. Rather we have to speak of the violence of nationalism against the idea of culture itself. Educational institutions are the primary spaces of cultural life. To harm the intellectual liberties of such institutions by the display of hooliganism showcases the fear of arguments by students of hyper-nationalist organisations. It is rather disturbing when you realize that students of a certain political predilection are prepared to do politics without ideas, which translates into a politics against ideas.
If the crisis of nationalism has come about due to the ideas and actions of those who challenge and critique it, why not challenge that crisis in turn by placing your arguments on the table? Or else, what prevents the ‘argumentative Indian’ from concluding that the crisis of nationalism has been brought on by the proponents of nationalism themselves? The argumentative Indian makes no sense if s/he belongs to the thought-police of any ideology. It is the argumentative Indian who has resisted the governments of all political parties as much as s/he has fought against corporates and challenged the corrupt in bureaucracy and law. It is the argumentative Indian who has not stopped asking questions about 1984 and 2002. The cowards who fear the power of thinking should not delude themselves into believing s/he can be so easily silenced.
In a recent election speech in  Uttar Pradesh, the prime minister said that if a (Muslim) graveyard is made in a village, then so should a (Hindu) crematorium, and that if there is enough electricity for Ramzan, it should be the same for Diwali. Narendra Modi is not making any profound point but he is using the language of representation to create cultural binaries in an antagonistic and competitive manner. As if Ramzan and Diwali are festivals that are defined by electricity. The other example between cemeteries and crematoriums is a strange but tricky one, for cemeteries obviously need much more space for burials whereas crematoriums don’t. The comparison doesn’t hold, though the point is, it was made. To make people think of religious festivals and death rituals in terms of space and favouritism is to divide cultural spheres into competitive zones and inject a psychology of divisiveness into what are simple and collaborative ways of living, celebrating – and dying.
The idea of a nation that pays secret, subtle or open allegiance to one religion and way of life is inherently divisive, for the very idea of one, of oneness, is against the idea of heterogeneity, of otherness. The politics of binaries – where differing world views, ways of life, eating and drinking habits and ways of worship are seen from the perspective of what is sacred and what isn’t – tends to infuse violence into diversity.

Wednesday, 22 February 2017

The blatant, arbitrary and callous misuse of the public exchequer by the self-styled ‘lord’ Chief Minister of Telangana in the name of ‘offerings’ to various temples and spending over Rs 50 crore on the construction of his official residence in the name of ‘vaastukala’ is going on unchecked and unquestioned by the authorities. It appears that Mr K Chandrasekhar Rao has given himself the power to splurge the taxpayer’s money to satisfy his personal whims and believes that there is no one to stop him from indulging in such a wasteful expenditure. I hope that our proactive judiciary will take a note of this nonsensical behavior of a public servant, question his locus standi and order the restitution of the taxpayer’s money in the state coffers at the earliest.

Monday, 20 February 2017

भोपाल। Whatsapp पर ऑटो करेक्शन की वजह से इन दिनों रोज नए-नए घपले हो रहे हैं। दो दिन पहले मप्र की शिवराज सिंह सरकार ने सरकारी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने के लिए एक कार्यक्रम ‘मिल बांचे मप्र’ (Mil Banche MP) शुरू किया। इसमें खुद मुख्यमंत्री से लेकर कई मंत्री और अनेक आला अफसरों ने भाग लिया। कार्यक्रम को लेकर एक सीनियर अफसर ने मुख्यमंत्री को Whatsapp पर एक मैसेज किया जिसमें उन्होंने कार्यक्रम की जमकर तारीफ की। चमचागिरी करने के लिए उन्हें इससे बेहतर मौका नहीं लगा होगा। लेकिन ऑटो करेक्शन के कारण हर जगह ‘मिल बांचे’ बन गया ‘मिल बांटे’। पढ़ें वही वाट्सएप :
सर, आज पूरे प्रदेश में ‘मिल बांटे मप्र’ कार्यक्रम हुआ। ऐसा धांसू कार्यक्रम तो आपके दिमाग की ही देन हो सकता है। मंत्री से लेकर अफसर तक, कोई भी ‘मिल बांटे मप्र’ में पीछे नहीं रहा। मैं आपको भरोसा दिलाता हूं कि आगे भी हम सारे अधिकारी आपके और मंत्रियों के साथ ‘मिल बांटे मप्र’ में कंधे से कंधा मिलाकर साथ देंगे।
बच्चे ही कल का भविष्य है। ‘मिल बांटे मप्र’ से बच्चे भी जरूर प्रेरणा लेंगे। इससे उनमें भी कुछ कर गुजरने की इच्छा जाग्रत होगी। सर, मैं पूरे भरोसे के साथ कह रहा हूं कि इस ‘मिल बांटे मप्र’ में भी कहीं न कहीं भाभीजी का योगदान होगा ही। आप दोनों को सबके भविष्य की कितनी चिंता है और ‘मिल बांटे मप्र’ तो इसकी एक छोटी-सी मिसाल भर है।
तुम्हारी ऐसी देशभक्ति तुम्हें ही मुबारक, 
हम तुम जैसे देशभक्त नहीं हो सकते !
देश को धर्म और दलित-सवर्ण के पाटों में बांटकर जहर उगलना नई देशभक्ति है। गरीबों, वंचितों और हाशिये पर जी रहे लोगों की बात करनेवालों को पत्थर मारना नई देशभक्ति है। सरकार की नीतियों और योजनाओं से असंतुष्टि जताने वालों को धमकाना नई देशभक्ति है। संविधान और संवैधानिक मूल्यों की बात करने वालों की जूतमपैजार करना नई देशभक्ति है। लोकतांत्रिक पद्धत्ति से सरकार बनाने वालों को, लोकतंत्र की याद दिलाने वालों को मां-बहन की गाली देना (महिलाओं को रंडी कहना) नई देशभक्ति है। मुद्दों पर आधारित विरोध प्रकट करने में किसी राजनैतिक पार्टी या धर्म का ध्यान ना रख, बिना पक्षपात किए सवाल करने वालों को पाकिस्तान का दलाल कहना नई देशभक्ति है। सार्वजानिक और राजनैतिक जीवन से धर्म को दूर रखने की अपील करने वालों को देशद्रोही का तमगा देना, नई देशभक्ति है। वैचारिक मतभेद का जवाब शारीरिक और शाब्दिक हिंसा से देना नई देशभक्ति है। ऐसा देशभक्त बनना आपको मुबारक हो, मैं और मेरी जैसे लोग नहीं हैं ऐसे देशभक्त। इस देश से इतना प्यार है हमें कि हम कभी ऐसे देशभक्त नहीं हो सकेंगे।देशभक्ति की यह नौटंकी तुम्हें ही मुबारक.
RELIGION HAS DONE LITTLE TO PREVENT WAR,FAMINE,CRIME,
OPPRESSION,MISERY AND UNHAPPINESS !
Each religion claims that its god or gods have supreme power. If their god or gods had any such power, they could wipe out all the unhappiness in one gesture. The truth is, of course, that there are no such gods and it is only the imagination of propagandists which originate such gods and such powers.
For ages men have been and still are, human slaves. In the United States of America as late as 1865, black men had little more freedom than dogs or horses. They were owned as chattels by white masters. The masters could and did make them work all their lives without any pay whatever. Every slave could be beaten, mauled, and mutilated or killed, and many have been so treated by drunken and cruel masters. The children of the slaves were sold like cattle and sheep. All of these things were done under legal authority. All of these terrible things were done under sanction of the Christian religion. Most American slave owners were religious Christians. The slaves themselves were supposed to be Christians.
Those who favored slavery quoted the Bible as authority for maintaining this cruel and inhuman practice. The Catholic Church and the Baptist church stood side by side in protecting the perpetrators of this inhumanity and oppression. When the Civil War took place, the Methodist Church in America divided on the question of slavery. The Methodist Church South and the Methodist Episcopal Church existed separately for generations. The Methodist Church South espoused the cause of slavery.
Men who owned slaves preferred to fight and kill or be killed rather than to give up their ownership of their human chattels. Even to this day Christian men, including priests and preachers, countenance and assist the whites of the South in keeping the Negroes there from voting and expressing their political views as all Americans are supposed to have the right to do.
Every office holder who takes an oath to support the Constitution of the United States winds up by saying, "so help me God" and then actually nullifies many of the rights the Constitution tries to guarantee.
There have been more wars since Christianity was established than there were before. Since the birth of Christ there have been only a few years in which there was not a war between Christian peoples. Cruel and tyrannical wars of extermination against the Indians of America were carried on by Christian people. With a Christian cross in one hand, a sword and gun in the other, the early Christian Spaniards conquered the Indians in North and South America. Murder, rape, torture, and enslavement, and in many cases positive extermination, followed in the bloody wars of the Spanish conquests under Pizarro and Cortez. The Catholic Church grew wealthy beyond its dreams as the result of this conquest. The Indians were Christianized under force of arms, but the new god they prayed to was as powerless as the old ones to protect them from the cruelty of and enslavement by their Christian conquerors.
In recent years the Italians under Mussolini, from the most Christian country on earth, coming from Rome, the seat of the Pope, ruthlessly murdered their way to ownership of the lands of Ethiopia, taking the Ethiopians' lands and country in one of the most cold blooded robbing expeditions ever known. The Ethiopian king was only restored to his throne by a more powerful nation, still worshiping the same god as the others.
Did the Pope raise one word of protest? Did any Christian church or Christian country actually do anything to stop them? Did the Christian God that the poor Ethiopians pray to do anything to save them? Did even the same Christian God the Italians pray to deliver the land to them without a fight? No, the men with the strongest arms won in that war as they have in all other wars.
Why must people still remain befuddled and think that their gods control their fates when they see Christian nations murdering other Christian inhabitants of the world; each praying to the same God of "love and good will" to permit them to get their neighbors by the throat so they can slit it?
The Hindus have their gods, Buddha, Krishna, Siva, and a thousand others. Each one is supposed to be a protector of some class or group. Murder, misery, early death, depravity, oppression, serfdom and starvation are the daily lot of the Hindus, the most religious people on earth. The Christian Englishmen with money to buy rulers and guns and bombs to kill protectors told the religious Hindus what to do.
And so it has been from time immemorial, the strong oppressed the weak. The stronger, selfish races murdered those with less strength. The oppressors and aggressive fighters inherited the earth and control it today. Gods of clay, wood, brass, gold, and iron, gods of imagination such as the Christian, Mohammedan, and other gods have been prayed to in vain for ages by gullible fools, by priests, preachers, and rulers. [The case against religion }
LikeShow more reactions
Comment

Saturday, 18 February 2017

देश भक्त होने का नवीनतम मापदंड !
कोई अगर कहे कि देश अपने नागरिकों के साथ नाइंसाफ़ी कर रहा है तो उसे माओवादी बता दें।
- अगर कोई मजदूरों और किसानों की बात उठाए तो उसे विकास विरोधी क़रार दें।
- आरक्षण का सवाल उठे तो योग्यता की बात करें। दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों को बीच-बीच में उनकी औकात बताते रहें।
- सुबह पार्क जाकर ज़ोर-ज़ोर से हंसे, योग करें, बाबा की मैगी खाएं, उनके बताए मुताबिक सांस लें और छोड़ें।
- लोकतंत्र को कोसते हुए बताएं कि सारी गड़बड़ियां वोट की राजनीति से है।
- नेहरू को गालियां दें और बताएं कि पटेल यह देश अच्छे से चला सकते थे।
- गांधी को महात्मा मानें, लेकिन गोडसे को और महान आत्मा मानें, उनकी मूर्तियां लगवाएं, उनकी फांसी के दिन पर शौर्य दिवस मनाएं।
गंगा मैया आपके धो डालेंगी पाप
भजन-कीर्तन कीजिए काशी जाकर आप
काशी जाकर आप गीत गाकर भरमाओ
तन पर मलो भभूत सियासी राग सुनाओ
शायद दत्तक पुत्र पार लग जाए नैया
धो डालेंगी पाप आपके गंगा मैया
-दिव्यदृष्टि

Friday, 17 February 2017

VIEW POINT ;
Dalhousie road in New Delhi renamed as Dara Shukoh road !
There is politics to naming and renaming entities in public spaces. It reinforces stereotypes. By pitting Dara Shukoh against Aurangzeb and creating a dichotomy of ‘acceptable’ and non acceptable’ Muslim historic figures, the Hindu nationalists are trying to establish a norm and an order. Apart from communalization of history by vilifying Mughal rulers like Aurangzeb through painting them as bigot zealots and cruel, such selective favoring of Muslims is also in effect setting up a litmus test for the country as to who will qualify as “acceptable”. By revisiting the life and ideas of Dara Shukoh one can reflect if the very ideas of Dara Shukoh that are cited as the reason for honoring him are being respected in India today.
In the atmosphere where Hindu religion is hailed to be supreme over all other religions, does the idea of pluralism as understood by Dara Shukoh figure in the policies formulated by the State? By making yoga mandatory for example, does the State remember Dara Shukoh’s doctrine of liberal philosophy and different ways or religions lead to one God? Didn’t he fight the very bigotry that we witness in India today? How does the cow become so holy and people are killed and beaten up for it that it is forgotten that Dara Shukoh emphasized on looking beyond superficial symbols of religion but to focus on commonalities between religions? Do the ideas of Dara Shukoh really resonate in way culture is explained and understood by the State? If not then renaming a street in the honor of Dara Shukoh is only a tainted hollow political gesture.[Progressive interactions].